Book Title: Jyoti Jale Mukti Mile
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 394
________________ आदि समस्त सांसारिक दुविधाओं से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाती है। उसका पुनरवतार नहीं होता। ___ कर्म-मुक्त दशा में आत्मा मात्र एक समय में लोकाग्रस्थित स्थान-विशेष में पहुंच जाती है। इस स्थान को सिद्धक्षेत्र या सिद्धशिला कहा जाता है। कभी-कभी इसे भी मोक्ष कहते हैं। मोहकर्म-प्राणी के दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (आचार) को विकृत करनेवाले कर्म को मोह कर्म या मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म की मुख्य दो प्रकृतियां हैं।-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां हैं-१. सम्यक्त्वमोहनीय २. मिथ्यात्व-मोहनीय ३. मिश्रमोहनीय। चारित्रमोहनीय की पचीस प्रकृतियां है-१. अनंतानुबंधी क्रोध २. अनंतानु-बंधी मान ३. अनंतानुबंधी माया ४. अनंतानुबंधी लोभ ५. अप्रत्याख्यान क्रोध ६. अप्रत्याख्यान मान ७. अप्रत्याख्यान माया ८. अप्रत्याख्यान लोभ ९. प्रत्याख्यान क्रोध १०. प्रत्याख्यान मान ११. प्रत्याख्यान माया १२. प्रत्याख्यान लोभ १३. संज्वलन क्रोध १४. संज्वलन मान १५. संज्वलन माया १६. संज्वलन लोभ १७. हास्य १८. रति १९. अरति २०. भय २१. शोक २२. जुगुप्सा २३. स्त्रीवेद २४. पुरुषवेद २५. नपुंसकवेद। यथाख्यात चारित्र-महाव्रत आदि धर्मों का पालन करना चारित्र है। वीतराग का चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है। यह ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। देखें-गुणस्थान, महाव्रत। लोक-अनंत आकाश के षड्द्रव्यात्मक भाग को लोक कहते हैं। धर्मास्ति काय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-ये छह द्रव्य हैं। लोक के तीन भाग हैं-१. ऊंचा लोक २. नीचा लोक ३. तिरछा लोक। तिरछे लोक को मध्य लोक भी कहा जाता है। देखें-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि। वीतराग-राग-द्वेष से मुक्त आत्मा को वीतराग कहते हैं। वीतराग ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। देखें-गुणस्थान। दूसरे शब्दों में क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार कषायों से .३७० - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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