Book Title: Jyoti Jale Mukti Mile
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 393
________________ और अधर्मास्तिकाय के असंख्य असंख्य प्रदेश होते हैं। आकाशास्तिकाय के प्रदेश अनंत होते हैं। लोकाकाश असंख्यप्रदेशी तथा अलोकाकाश अनंतप्रदेशी है। पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनंत हो सकते हैं। काल तथा परमाणुपुद्गल दोनों अप्रदेशी हैं। जीवास्तिकाय (एक जीव) के भी असंख्य प्रदेश हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और जीवास्तिकाय ( एक जीव) - इन चारों के प्रदेशों की संख्या समान है। - प्रदेश को 'अविभागी परिच्छेद' भी कहा जाता है। पौद्गलिक वस्तु से पृथक हो जाने पर प्रदेश 'परमाणु' कहलाता है। बंध - आत्मा द्वारा कर्मपुद्गलों का संग्रहण और उनका परस्पर दूध और घी की तरह एकीभूत संबंध बंध है। बंध के चार प्रकार हैं- १. प्रकृति २. स्थिति ३. अनुभाग ४. प्रदेश । महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांचों व्रतों का पूर्ण / अखंडित रूप । मन, वचन और काया से कृत, कारित और अनुमोदन - वर्जन के साथ अहिंसा आदि का पालन करना पूर्ण / अखंडित का सीमा क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टि, मिथ्यात्वी - जो तत्त्व जिस रूप में है, उसे उससे विपरीत रूप में समझना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों (मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय) तथा चारित्रमोहनीय की चार प्रकृतियों (अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ) के उदय से निष्पन्न होता है | दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय मोहकर्म के ही दो भेद हैं। देखें - मोहकर्म, सम्यक्त्वी । जो प्राणी मिथ्यात्व से ग्रस्त है यानी जिसकी श्रद्धा / समझ असम्यक / विपरीत है, वह मिथ्यात्वी है। मोक्ष - चेतना का वह चरम स्तर, जहां पूर्व समस्त कर्मों का बंधन क्षीण हो जाता है और नए बंधन की प्रक्रिया बिलकुल बंद हो जाती है। इस अवस्था को प्राप्त आत्मा ही परमात्मा कहलाती है। कर्म-मुक्त अवस्था को प्राप्त होने पर वह जन्म, मरण, रोग, शोक, दुःख पारिभाषिक कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only ३६९ • www.jainelibrary.org

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