Book Title: Jyoti Jale Mukti Mile
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 390
________________ प्राणी तीर्थंकर पद की प्राप्ति करता है और जिसके कारण उसे अतिशयों की प्राप्ति होती है। अरहंत की भक्ति, सिद्ध की भक्ति, सम्यक्त्व की निर्दोष आराधना, सुपात्र दान, जिन-प्रवचन की प्रभावना आदि बीस स्थानों से प्राणी इस कर्म-प्रकृति का उपार्जन करता है। देखें-तीर्थंकर । दंडक - प्राणी अपने कृत कर्मों का जिन स्थानों या अवस्थाओं में फल भुगतते हैं, वे स्थान या अवस्थाएं दंडक कहलाती हैं। ध्यान- एकाग्र चिंतन अथवा योग ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) के निरोध को ध्यान कहते हैं। उसके चार प्रकार हैं- १. आर्त २. रौद्र ३. धर्म्य ४. शुक्ल । इनमें प्रथम दो प्रकार - आर्त और रौद्र अशुभ हैं-कर्म-बंधन के हेतु हैं । इनमें एकाग्र चिंतन की स्थिति बनती है, मात्र इस अपेक्षा से ये ध्यान मान लिए गए हैं। चूंकि ये व्यक्ति के चैतन्य-विकास में सहायक नहीं बनते, इसलिए ये दोनों तप की कोटि में नहीं हैं। धर्म्य और शुक्ल शुभ हैं; इन्हें तप माना गया है। अध्यात्म-साधना में उपवास आदि बाह्य तप की अपेक्षा ध्यान आदि आभ्यंतर तप को अधिक महत्त्व दिया गया है। नय - हर वस्तु तत्त्वतः अनंतधर्मात्मक होती है । वस्तु के विवक्षित धर्म का संग्रहण और अन्य धर्मों का खंडन न करनेवाले विचार को नय कहा जाता है। सत्य की मीमांसा में ज्ञाता या वक्ता का दृष्टिकोण या नय जानना आवश्यक है। जिस दृष्टिकोण से विवक्षा की जाती है, उसके अनुसार ही वक्ता के कथन का तात्पर्यार्थ समझा जा सकता है। वक्ता एक साथ अनंत धर्मों के विषय में नहीं बता सकता। वह एक धर्म को प्रमुखता देता है और अन्य धर्मों को गौण करता है। इसे जानकर ही हम उसका अभिप्राय समझ सकते हैं। स्याद्वाद की पद्धति में नय के आधार पर सत्य की व्याख्या की जाती है। निकाचित कर्म - जो कर्म किसी पुरुषार्थ से परिवर्तित नहीं हो सकते, जिनमें उद्वर्तना, अपवर्तना आदि में से कोई भी 'करण' का प्रयोग संभव नहीं है, वे कर्म निकाचित कर्म कहलाते हैं। ऐसे कर्मों को भोगना एकमात्र विकल्प है। कर्मवाद की अवधारणा में परिवर्तन को मान्य किया गया है। जो कर्म निकाचित नहीं हैं, उन्हें पुरुषार्थ आदि के द्वारा बदला जा ज्योति जले : मुक्ति मिले • ३६६ • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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