Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 8
________________ [7] ************************************************************************************ आगति आदि २३ द्वारों का निरूपण कर उनका स्वरूप बतलाया गया है। यानी लघुदण्डक के लगभग समस्त द्वारों का निरूपण इसी प्रतिपत्ति में किया गया है। द्वितीय प्रतिपति - द्वितीय प्रतिपत्ति में समस्त संसारी जीवों को वेद की अपेक्षा से तीन विभागों में विभक्त किया-स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद। इसके पश्चात् तिर्यंच योनिक स्त्रियों मनुष्य योनिक, देवयोनिक, स्त्रियों के भेद, उनकी स्थिति, संचिट्ठणकाल, अन्तर द्वार,अल्पबहुत्व, स्थिति, बंध आदि का विस्तार से निरूपण किया गया है। स्त्रीवेद के कथन के अनन्तर पुरुष वेद का निरूपण किया है। पुरुष के भेद प्रभेदो का वर्णन करके उनकी स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर पुरुष वेद की बंध स्थिति, अबाधाकाल और कर्मनिषेक बताकर पुरुषवेद को दावाग्नि ज्वाला के समान निरूपित किया है। तत्पश्चात् नपुंसक वेद का निरूपण हुआ है जिसके अन्तर्गत नैरयिक नपुंसक, तिर्यक् योनिक, नपुसंक और मनुष्य योनिक नपुंसक का वर्णन है। देवयोनिक नपुंसक नहीं होते हैं। अतएव उनका वर्णन नहीं है। नपुंसक योन्निक के भेद-प्रभेद का निरूपण के पश्चात् स्त्री वेद और पुरुष वेद की भांति नपुंसक योनिक की भी स्थिति संचिट्ठणा, अन्तर, अल्पबहुत्व, बंध स्थिति अबाधाकाल आदि का प्रतिपादन दिया है। नपुंसक वेद को महानगरदाह के समान बताया है। तीनों वेदों के बाद आठ प्रकार के वेदों के अल्प बहुत्व का निरूपण इस प्रतिपत्ति में किया गया है। तृतीय प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को चार भागों में, नैरयिक, तिर्यक् योनिक, मनुष्य और देव में विभाजित कर उनका विस्तार से निरूपण किया गया है। सर्व प्रथम सातों नरक की पृथ्वियाँ की मोटाई, उनके पाथड़े, आतरे नरकावासों की संख्या, रत्न प्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन के ऊपर के क्षेत्र में भवनवासी -देवों के भवनों का वर्णन, इसके अलावा नरकावासों के संस्थान, आयाम-विष्कंभ, वर्ण, गंध रस स्पर्श उनकी अशुभना का चित्रण किया गया है। चारों गतियों की अपेक्षा नरक गति के जीवों के वेदना, लेश्या, नाम गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख, प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, क्रोध, मान, माया, लोभ, आहार भय मैथुन-परिग्रहादि संज्ञा आदि अशुभ एवं अनिष्ट होते, इसका दिग्दर्शन इस प्रतिपत्ति में कराया है। नारकी जीवों को वहाँ क्षण मात्र भी सुख नहीं, हमेशा अति शीत, अग्नि, उष्ण, अतितृष्णा, अतिक्षुधा और अति भय से संतप्त रहते हैं। इन सब का अति विस्तार से इसमें वर्णन किया गया है। - तिर्यक् योनिक जीवों के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के विभिन्न भेदप्रभेदों, इन जीवों के लेश्या दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग उपयोग, आगति, गति, स्थिति, समुद्घात, कुलकोड़ी का कथन किया गया है। तदनन्तर मनुष्याधिकार में कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अन्तद्वीपक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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