Book Title: Jinabhashita 2009 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ दिक्पालों के आह्वानादि के स्थान में जिनेन्द्र के आह्वानादि का प्रचलन उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि दिगम्बरजैन-परम्परा में सिद्धशिलागत जिनेन्द्रदेव के आवाहन आदि का नियम न तो संकल्पित जिन (अतदाकारस्थापना) की पूजाविधि में था, न ही जिनप्रतिमा (तदाकारस्थापना) की पूजाविधि में। परवर्ती पूजकों ने उसका प्रवेश दोनों पूजाविधियों में करा दिया। जिनप्रतिमा-पूजाविधि में उसका प्रवेश तो हम वर्तमान में प्रत्यक्ष देख रहे हैं ओर संकल्पितजिन-पूजाविधि में प्रवेश की सूचना प्रतिष्ठादीपक के निम्न श्लोकों से मिलती है साकार च निराकारा स्थापना द्विविधा मता। अक्षतादिनिराकारा साकारा प्रतिमादिषु॥ आह्वानं प्रतिष्ठानं सान्निधीकरणं तथा। पूजा विसर्जनं चेति निराकारे भवेदिति॥ साकारे जिनबिम्बे स्यादेक एवोपचारकः। स चाष्टविध एवोक्तं जलगन्धाक्षतादिभिः॥ (श्रावकाचारसंग्रह / भाग ४ । प्रस्तावना / पृ. १३४ से उद्धृत) इसका कारण स्पष्ट है। सोमदेवसरि.देवसेन एवं पं० वामदेव ने अभिषेक से पहले विघ्नों की शान्ति के लिए इन्द्रादि दश दिक्पालों के आह्वानादि का विधान किया है। अज्ञानता के कारण वह आगे चलकर सिद्धशिला-स्थित जिनेन्द्रदेव के लिए किया जाने लगा। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसका सप्रमाण प्ररूपण उपासकाध्ययन की प्रस्तावना (पृष्ठ ५२-५३) में किया है। उसे एक स्वतंत्र लेख के रूप में आगे उद्धृत किया जा रहा है। ठोने का प्रयोग भी तभी से जिनेन्द्रदेव को सिद्धशिला से बुलाकर ठोने पर स्थापित करने की प्रथा भी तभी से प्रचलित हुई है, जब से दिक्पालों के आवाहन-स्थापन की प्रथा जिनेन्द्रदेव पर आरोपित की गयी। इसके पूर्व तो जिनप्रतिमा को स्नानपीठ पर स्थापित किया जाता था और अभिषेक-पूजन के बाद ही उसे पुनः मूलपीठ पर विराजमान किया जाता था। उस समय तक ठोने (जो कि बड़ा होता था) का प्रयोग पूजा द्रव्य रखने के लिए किया जाता था, जैसा कि श्रुतसागर सूरि के निम्न वचन से ज्ञात होता है "सुप्रीतिका विचित्रचित्रमयी पूजाद्रव्यस्थापनार्हा स्तम्भाधारकुम्भी।" (दंसणपाहुड / टीका / गाथा ३५)। अर्थात् पूजाद्रव्य को स्थापित करने योग्य, स्तंभों पर आधारित विचित्र चित्रों से युक्त कुम्भी (ओठदार गहरा पात्र) सुप्रीतिका (ठोना) कहलाती है। एक जिन या जिनालय से सभी जिनों या जिनालयों की पूजा संभव कुछ लोग कहते हैं कि जिनालय में जिन तीर्थंकर-विशेष की प्रतिमा विद्यमान नहीं है, उनकी पूजा के लिए ठोने पर पुष्प आदि रखकर उनमें उन तीर्थंकर की सिद्धशिला से आवाहन करके स्थापना आवश्यक है। यह मान्यता समीचीन नहीं है। आगम में कहा गया है कि अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सख आदि के द्वारा अनन्त जिन एकत्व को प्राप्त हैं। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, अतएव एक जिन या जिनालय की वंदना से सभी जिनों या जिनालयों की वन्दना हो जाती है___ "अणंतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तभावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि वंदणवुवत्तीदो।" (जयधवला / कसायपाहुड / भाग १ / अनुच्छेद ८७ / पृ. ११२)। वन्दना पूजन का ही अंग हैं। अतः एक जिन या जिनालय की पूजा से सभी जिनों या जिनालयों की पूजा हो जाती है। इसलिए जिन तीर्थंकर की प्रतिमा मन्दिर में प्रतिष्ठित नहीं है, उनकी पूजा भी अन्य तीर्थंकर की प्रतिष्ठित प्रतिमा के आश्रय से की जा सकती है। अतः पुष्पादि में स्थापना की आवश्यकता - दिसम्बर 2009 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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