Book Title: Jinabhashita 2009 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ अर्थ- भाव से भी नग्न होना चाहिए, केवल बाहरी | अर्थ- गृहस्थ यदि निर्मोही है, तो वह मोक्षमार्ग नग्नवेष से ही क्या होता है? जो द्रव्यलिंग के साथ- | का पथिक है। किन्तु मुनि होकर मोह रखता है, तो साथ भावलिंग का धारी है, वही कर्मप्रकृतियों के समूह वह मोक्षमार्ग का पथिक नहीं है। मोही मुनि से निर्मोही का नाश करता है। गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है। बहदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो॥ आचार्य गुणभद्र को तो वन को छोड़ रात्रि में बस्ती भावपाहड/१५३। | के समीप आ जाने मात्र मुनियों की इतनी सी शिथिलता अर्थ- जो साधु मलिनचित्त हुआ मुनिचर्या में अनेक | भी सहन न हुई है। वे आत्मानुशासन में लिखते हैंदोष लगाता है, वह श्रावक के समान भी नहीं हैं। इतस्ततश्च स्यंतो विभावार्यां यथा मृगाः। ध्रुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ।। १९७॥ णाऊण ध्रुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि॥ ६०॥ अर्थ- जिस प्रकार इधर उधर से भयभीत हुए मोक्खपाहुड | गीदड़ रात्रि में वन को छोड़ गाँव के समीप आ जाते अर्थ- चार ज्ञान के धारी और जिनकी सिद्धि हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वन को निश्चित है, ऐसे तीर्थङ्कर भी तपश्चरण करते हैं, ऐसा | छोड़ रात्रि में गांव के समीप रहने लगे हैं।. यह खेद जानकर विद्वान् मुनि को भी निश्चय से तपस्या करनी | की बात है। चाहिए। रानी रेवती की कथा में आचार्य महाराज ने श्राविका सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि। | रेवती को तो आशीर्वाद कहला भेजा। परन्तु वहीं पर तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावय॥६२॥ | रहनेवाले ग्यारह अङ्ग के पाठी, किन्तु चारित्रभ्रष्ट भव्यसेन मोक्खपाहुड | मुनि को आशीर्वाद कहला नहीं भेजा। मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व अर्थ- सुख की वासना में रहा ज्ञान दुख पड़ने | और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्त्व है। इसीलिए गुणस्थानों पर नष्ट हो जाता है। इसलिये योगी को यथा शक्ति का क्रम सम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान दुख सहने का अभ्यास करना चाहिये। अर्थात् परिषहों | की अपेक्षा से नहीं है। ज्यों-ज्यों चारित्र बढ़ता जायेगा, को सहना चाहिए। त्यों त्यों ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता जावेगा। __णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दसणविहूणं। ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के साथ नहीं है। ज्ञान बढ़ता संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व॥ ५॥ | रहे तब भी गुणस्थान बढ़ता नहीं। अल्पश्रुत के धारी सीलपाहुड | शिवभूति मुनि ने तुसमाष को घोषते हए ही सिद्धि को अर्थ- चारित्रहीन ज्ञान को, सम्यक्त्वरहित लिंगग्रहण | प्राप्त कर लिया। यही बात मूलाचार में कही हैको और संयमहीन तप को यदि कोई आचरता है, तो धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ये सब उसके निरर्थक हैं। णय सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाई॥३॥ जो विसयलोलएहिं णाणीहिं हविज्ज साहिदो मोक्खो। मूलाचार / समयसाराधिकार तो सो सच्चइपुत्तो दसपुव्वीओ वि किं गदो णरयं॥३०॥ अर्थ- धीरवीर वैराग्यपरायण मुनि तो थोड़ा पढ़ सीलपाहुड | लिखकर ही सिद्धि को पा लेता है, किन्तु वैराग्यहीन मुनि ___ अर्थ- यदि इन्द्रिय-विषयों के लोलुपी शास्त्रज्ञानियों | सब शास्त्रों को पढ़कर भी सिद्धि को नहीं पाता है। ने ही मोक्ष साध लिया होता, तो दशपूर्वो का ज्ञाता होकर इन सब उल्लेखों में मुनि के निर्मल चारित्र को भी सात्यकिपत्र-रुद्र नरक में क्यों जाता? प्रधानता दी है। अर्थात् किसी मनि में अन्य सभी गण यह तो हुआ श्री कुन्दकुन्द स्वामी का उपदेश। | हों और चारित्र की उज्ज्वलता न हो, तो सब निरर्थक इन्हीं सबका सारांश आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने | है। (अपूर्ण) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में एक ही पद्य में कह दिया है- | 'जैन निबन्धरत्नावली' (भाग २) से साभार गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥ 14 दिसम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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