Book Title: Jinabhashita 2009 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ में अत्यन्त सहायक एवं सहज रूप में प्राप्य बना देता । सहिष्णुता, परोपकार, करुणा एवं सन्तोषधन से परिप्लावित होता है तथा आत्मरूप को समझता हुआ आत्मकल्याण महाराजश्री-कृत अन्य अनुवादों में 'एकीभाव- | की ओर अग्रसर होता है। स्तोत्र','कल्याणमन्दिरस्तोत्र', 'गोम्मटेस थुदि','आप्तमीमांसा', 'भावनाशतकम्' (तीर्थंकर ऐसे बने) लघुकाय रूप 'पात्रकेसरीस्तोत्र', 'नन्दीश्वरभक्ति', 'सिद्धभक्ति', में या कहो खण्डकाव्य रूप में रचित अत्यन्त अर्थगाम्भीर्य 'आचार्यभक्ति', 'चारित्रभक्ति', योगभक्ति, 'निर्वाणभक्ति', | पूर्ण कृति है, जिससे 'गागर में सागर' उक्ति चरितार्थ चैत्यभक्ति, 'पंचमहागुरुभक्ति', 'शांतिभक्ति' एवं होती है (सतसइया के दोहरे....)। शब्दालंकार-बहुल यह 'स्वरूपसंबोधन' इत्यादि मनुष्यों के हृदय में सद्भक्ति | ग्रन्थ विषय को उपस्थित करने में पूर्णरूप से सफल जागृत करते हैं। इनके स्तोत्रों की काव्यकला गायन रूप | है एवं दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र में अनूठा स्थान रखता है। में प्रस्तुत होने पर मनुष्य आत्मपर्यालोचन में लीन होकर | इस काव्य में आचार्यजी ने ८४ आर्या छन्द तथा १६ आत्मा के रूप को आत्मसात् कर अपना स्वरूप जानने | मुरज बन्धों में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग किया है। मुरजबन्ध में तत्पर होता है। का प्रयोग इस ग्रन्थ के १०, १६, २२, २८, ३४, ४०, आपके साहित्य में दार्शनिक पुट, धार्मिक चेतना, | ४६, ५२, ५८, ६४, ७०, ७६, ८२, ८८, ९४ एवं १०० नैतिक जागरण, मानवीय गुण एवं गंभीर चिन्तन परिलक्षित | नम्बर के छन्दों में किया गया है। होता है। इतने ग्रन्थों का विशाल अध्ययन एवं लेखन चारों गतियों में मनुष्यगति सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि किसी अदम्यशक्ति, सरस्वती के वरद पुत्र को ही संभव | मनुष्यगति ही निर्वाण प्राप्ति में कारण है। तीर्थंकर प्रकृति है। इस शक्ति को दैवी शक्ति कहें या परिश्रमप्राप्त | का बंध १६ कारणों से मनुष्य गति में ही प्रारम्भ होता विचक्षणता! धन्य है आचार्यश्री को, जिन्होंने अपने विशाल, | है। ये १६ कारण तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण निरन्तर अध्ययन से सरस्वती के भण्डार को और भी हैं। जो तीर्थ चलाते हैं, तीर्थ का उपदेश देते हैं वे 'तीर्थंकर' अधिक प्रदीप्त किया है। प्रतीत होता है आचार्यश्री लेखनी | होते हैं। तीर्थंकरप्रकृति का बंध का प्रारम्भ कर्मभूमिया को स्वेच्छानुसार स्वरूप देते हैं। अब लेखनी इनकी | सम्यग्दृष्टि मनुष्य को केवली या श्रुतकेवली के आज्ञानुसार चलती है और इनकी इच्छा को पूर्णरूप से | में होता है। तीर्थकरप्रकृति का बन्ध १६ कारण भावनाएँ अंगीकार करती है। आपके प्रवचनसंग्रह भव्य प्राणियों | भाने से होता है। आचार्य उमास्वामी जी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' को उद्बोधन करने में अत्यन्त सक्षम हैं। अपने रसमाधुर्य, के छठे अध्याय के चौबीसवें सूत्र में तीर्थंकरप्रकृति के भाषा-भाव-गाम्भीर्य से भाषा जनमानस तक सहजरूप में| आस्रव की कारणभूत १६ भावनाओं का वर्णन किया पहुँचती है। आपके प्रवचनसार संकलनरूप में समय- है- १. दर्शनविशुद्धि २. विनयसम्पन्नता, ३. शील और समय पर प्रकाशित हुए हैं, उनमें प्रमुख हैं- 'प्रवचन- | व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ४. ज्ञान में सतत पारिजात', 'प्रवचनप्रदीप', 'प्रचवनसुरभि', 'प्रवचनपीयूष', | उपयोग, ५. सतत संवेग, ६. शक्ति के अनुसार त्याग, 'प्रवचनपर्व', प्रवचनामृत', 'प्रवचनपंचामृत', 'पावनप्रवचन',| ७. शक्ति के अनुसार तप, ८. साधु समाधि, ९. वैयावृत्ति 'गुरुवाणी', 'अकिंचित्कर', 'सर्वोदयसार', 'आत्मानुभूति | १०. अरिहंतभक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रुतभक्ति, ही समयसार', 'आदर्श कौन?', 'डबडबाती आँखें', 'न | १३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, धर्मो धार्मिकैर्विना', 'तेरा सो एक', 'जैनदर्शन का हृदय', | १५. मोक्षमार्ग की प्रभावना, १६. प्रवचनवात्सल्य। किन्तु 'जयन्ती से परे', 'कर विवेक से काम', 'चरण... आचरण | आचार्यश्री ने इन्हीं कारणों को किंचित् नामों में परिवर्तन की ओर', 'मानसिक सफलता', 'मर हम... मरहम बनें', कर वर्णित किया है, ये जो समीचीन है, परम्परा रूप 'भक्त का उत्सर्ग', 'ब्रह्मचर्य...चेतन को भोग', 'भोग से | में निरन्तर उपस्थित रहते हैं- १. निर्मलदृष्टि, २. योग की ओर', 'धीवर की धी', 'सिद्धोदयसार', 'तपोवन | विनयावनति, ३. सुशीलता, ४. निरन्तर ज्ञानोपयोग, ५. देशना', 'कुण्डलपुर देशना', 'धर्मदेशना', 'प्रवचनिका', | संवेग, ६. त्यागवृत्ति, ७. सत् तप, ८, साधुसमाधि'आदर्शों के आदर्श', 'समागम' एवं 'विद्यावाणी' इत्यादि। | सुधासाधन, ९.वैयावृत्त्य, १०. अर्हद्भक्ति, ११. आचार्यस्तुति, इन संग्रहों के पठन-पाठन एवं चिन्तन से मानसिक स्वरूप । १२. शिक्षागुरु-स्तुति, १३. भगवद्भारती-भक्ति, १४. के-पाटमल 28 दिसम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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