Book Title: Jinabhashita 2009 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ के चाहे वह निद्रा में हो या कुछ भी क्रिया कर रहा हो, आयुकर्म को छोड़कर शेष साथ कर्मों का बन्ध प्रतिसमय होता ही है। क्योंकि उसके बन्ध के कारणभूत कषाययोग आदि पाये ही जाते हैं। यदि आयुकर्म का अषकर्षकाल हो और तद्योग्य परिणाम भी हों, तो उस काल में आठों कर्मों का बन्ध होता है। निद्रा के काल में आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता ही है, अतः योग एवं कषाय आदि होने से बन्ध प्रतिसमय होता ही है। प्रत्येक संसारी जीव के ४७ ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का बन्ध प्रतिसमय होता ही है। श्री धवल पुस्तक ८, पृष्ठ १७, के अनुसार वे ४७ प्रकृतियाँ इसप्रकार हैं- ज्ञानावरण की ५, अन्तराय की ५, दर्शनावरण की ९, दर्शनमोहनीय की १, ( मिथ्यात्व ) चारित्रमोहनीय की १८, ( कषाय १६, तथा भय और जुगुप्सा १८), नामकर्म की ९ ( तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण आदि ४, अगुरुलधु, उपघात तथा निर्माण) = ४७ । अतः स्वाध्याय करते समय भी ज्ञानावरणकर्म की पाँचों प्रकृतियों का बंध- होना स्वाभाविक है। इतना अवश्य है कि स्वाध्याय के काल में कषायों की मन्दता होने के कारण बँधने वाले कर्मों में स्थिति कम पड़ेगी और पापप्रकृतियों में अनुभाग कम एवं पुण्यप्रकृतियों में अनुभाग अधिक पड़ेगा। तदनुसार ज्ञानावरण कर्म पाप प्रकृति है, अतः स्वाध्याय काल में उसका बन्ध तो होगा, परन्तु स्थितिबंध और अनुभागबंध कम होगा। जिज्ञासा - संसारी अवस्था में क्या नवग्रह आदि के कारण हमारा अच्छा बुरा होता है या नहीं ? इस संबंध में शास्त्र क्या कहते हैं? समाधान- आजकल बहुत से जैनी भाई अपने आपको नवग्रह की बाधा से पीड़ित मानते हुए तरह- तरह के मन्त्र-जाप-विधानादि करते हुए देखे जा रहे हैं। वर्तमान के कुछ आचार्य एवं मुनि भी उन भाइयों को ग्रहशान्ति के लिए नवग्रहविधान तथा कालसर्पयोगविधान आदि कराते हुए देखे जा रहे हैं। यह सब कलिकाल का प्रभाव है । । । ऐसे अज्ञानी जीव कितने ही शास्त्रीय प्रमाण बताए जाने पर भी अपनी गलत धारणा को बदलने के लिए तैयार नहीं होते । इस संबंध में वरांगचरित सर्ग-२४ में इस प्रकार कहा है- "ग्रहों की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता के कारण ही संसार का भला अथवा बुरा होता है, जो लोग इस प्रकार का उपदेश देते हैं, वे संसार के भोले, अविवेकी प्राणियों को साक्षात् ठगते हैं। क्योंकि यह सिद्धान्त वास्तविकता से बहुत दूर है। यदि यह सत्य हो तो, जो लोग इस पर आस्था करते हैं, सबसे पहले वे अपनी उन्नति तथा अभ्युदय को क्या नहीं करते हैं? यदि शुभग्रहों के मिलने से ही सुखसम्पत्ति होती है, तो क्या कारण है कि श्रीरामचन्द्र जी का अपनी प्राणाधिका से वियोग हुआ था, जबकि उनकी तथा सीताजी की कुण्डली तो बहुत सुन्दररूप से मिली थी। ग्रहों के गुरु शुक्राचार्य के द्वारा कही गई नीति यदि ऐसी है कि उसका पालन करने पर कभी किसी की हानि हो ही नहीं सकती है, तो वह रावण जो कि उसका विशेषज्ञ था क्यों अपनी स्त्री तथा बच्चों के साथ सदा के लिए नष्ट हो गया ? उग्र तेजस्वी सूर्य तथा जगत को मोह में डालने के योग्य अनुपम कान्ति तथा सुधा के अनन्त स्रोत चन्द्रमा का दूसरे ग्रहों (राहु तथा केतु) के द्वारा ग्रसना, इन्द्र के प्रधानमंत्री अनुपम मतिमान् वृहस्पति का दूसरों के द्वारा भरणपोषण तथा इस लोक के सुविख्यात मौलिक विद्वानों की दारुण-दरिद्रता को देखकर कौन ऐसा बुद्धिमान् व्यक्ति है, जो कि इस लोकप्रवाद पर विश्वास करेगा कि संसार के सुख-दुख के कारण सूर्य आदि ग्रह ही हैं । " उपर्युक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि ग्रह आदि हमको सुखदुख देने में कारण नहीं हैं। ये मात्र सूचना देने में निमित्त हैं । इनकी पूजा करना अथवा इनकी शान्ति के लिए विधान आदि करना मिध्यात्व है। सांसारिक कष्ट आदि आने पर हमें निष्कामभाव से सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की भक्ति-पूजा आदि करनी चाहिए, जिससे स्वयमेव ही अशुभ कर्मों का संक्रमण या अनुभाग हीन हो जाने से सांसारिक कष्ट दूर होते हैं। ऐसी धारणा बनाना ही उचित है । भूल सुधार 'जिनभाषित' नवम्बर २००९ के जिज्ञासा समाधान में पृष्ठ २७ पर जो भावार्थ दिया गया है, उसे इस प्रकार सुधार कर पढ़ें - "कोई उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव जब मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है, तब उसकी सत्ता में जो सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यमिध्यात्व प्रकृति हैं, उनकी उद्वेलना प्रारम्भ हो जाती है, अर्थात्---।'' 26 दिसम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36