Book Title: Jinabhashita 2009 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा- क्या व्यवहारपल्य संख्यात वर्षों का होता । तथा गर्भस्थ शिशु के भाग्य की सराहना की जाती है। ४है या असंख्यात वर्षों का? |५ माह की गर्भवती महिला को, मुनि को आहारदान देने समाधान- व्यवहारपल्य के सम्बन्ध में आम धारणा | से तथा बड़ी पूजा या विधान आदि में बैठने से अवश्य यही है कि यह असंख्यात वर्षों का होता है, जबकि | दूर रखा जाता है, जिसका कारण पूछने पर पूज्य आचार्यश्री त्रिलोकसार गाथा नं. ९८ तथा ९९ के अनुसार ऐसा नहीं | ने एक बार बताया था कि मुनि आहार के समय में भीड़है। गाथा नं. ९८ में कहा गया है कि व्यवहारपल्य का समय | भाड़ होने के कारण अथवा बड़ी पूजा आदि के काल में निकालने के लिए यदि रोमों को गिना जाय तो उनकी संख्या | कई घण्टों तक व्यस्त रहने के कारण गर्भस्थ शिशु तथा ४५ अंक प्रमाण होती है। इसी त्रिलोकसार ग्रन्थ की गाथा | गर्भवती महिला को असुविधा हो सकती है, जिसके कुछ नं. ९९ में इसप्रकार कहा है गलत परिणाम भी हो सकते हैं। अत: आहार देने अथवा वस्ससदेवस्ससदे एक्केक्के अवहिदम्हि जो कालो। | पूजा में बैठने से मना किया जाता हैं। परन्तु जिनपूजा से तक्कालसमयसंखा णेया ववहारपल्लस्स॥ ९९॥ | मना करने का तो प्रश्न ही नहीं है। अर्थ- प्रत्येक १०० वर्ष बाद एक-एक रोम के पूज्य आचार्यश्री के अनुसार, हमारी जो सामयिक निकाले जाने पर जितने काल में समस्त रोम समाप्त हों | परम्पराएँ आगमसम्मत न हों और हमें धर्म से दूर रखती उतने काल के समय ही व्यवहारपल्य के समयों की संख्या हों, उनको बदल देना चाहिए। आशा है जिन स्थानों पर उपर्युक्त परम्परा चल रही है, वे उपर्युक्त समाधान के विशेषार्थ- कुण्ड में भरे हुए ४५ अंक प्रमाण | अनुसार बदलने का प्रयत्न करेंगे। उपर्युक्त रोमों में से यदि एक-एक रोम को १०० वर्ष बाद । जिज्ञासा- स्वाध्याय को परम तप क्यों कहा गया निकाला जाय तो व्यवहारपल्य के वर्षों की संख्या आती | है, जब कि परम तप तो ध्यान को मानना चाहिए? है, अर्थात् व्यवहारपल्य के वर्षों की संख्या ४५ अंक प्रमाण समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के संबंध में शास्त्रों के में दो शून्य और लगा देने से ४७ अंक प्रमाण वर्ष एक | निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैंव्यवहारपल्य के होते हैं। यह संख्या, संख्यात में आती १. मूलाचार प्रदीप में श्लोक नं. १९९३ से १९९७ है, असंख्यात में नहीं। तक इस प्रकार कहा गया हैतिलोयपण्णत्ति गाथा १/१२५ में भी उपर्युक्त प्रकार समस्ततपसां-----शिवशर्मणे॥१९९३-१९९७॥ ही कहा गया है। अर्थ- समस्त तपश्चरणों में विद्वान् पुरुषों को इस जिज्ञासा- क्या ४-५ माह की गर्भवती महिला को | स्वाध्याय के समान न तो अन्य कोई तप आज तक हुआ पूजा नहीं करनी चाहिए? आगमप्रमाण से बताएँ? | है, न है, और न आगे होगा। इसका भी कारण यह है समाधान-उपर्युक्त प्रश्न के संबंध में कोई आगम- कि स्वाध्याय करनेवालों के पञ्चेन्द्रियों का निरोध अच्छी प्रमाण मेरी दृष्टि में नहीं आया। मैंने उपर्युक्त प्रश्न का | तरह होता है तथा तीनों गप्तियों का पालन होता है और उत्तर मुनिसंघों और आर्यिकासंघों से पूछा तो समाधान प्राप्त | संवर. निर्जरा तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस स्वाध्याय हुआ कि ४-५ माह की गर्भवती महिला को पूजा से दूर से ही मुनियों के योगों की शुद्धि होती है तथा महाशुक्लकरना कदापि उचित नहीं है। गर्भवती महिला के पूजा-- | ध्यान प्राप्त होता है। शक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाश स्तवन आदि से गर्भस्थ शिशु पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता | होता है, जिससे केवलज्ञान प्रकट होता है। केवलज्ञान के है, उसमें धार्मिक संस्कार बनते हैं। अतः प्रसूतिवाले दिन होने से इन्द्र भी आकर पूजा करता है तथा अन्त में मोक्ष तक भी गर्भवती महिला को पूजा करनी चाहिए। मध्यप्रदेश की प्राप्ति होती है। इस प्रकार इस स्वाध्याय का सर्वोत्कृष्ट के बहुत से स्थानों में ऐसी परम्परा सुनने में आई है कि फल समझकर विद्वान् पुरुषों को मोक्षसुख प्राप्त करने के वे ४-५ माहवाली गर्भवती को आगे पूजा नहीं करने देते | लिए प्रमाद छोड़कर प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिए। हैं, जब कि उत्तरप्रदेश आदि में अंतिम दिन तक भी पूजा २. आचारसार में इस प्रकार कहा हैकरने से नहीं रोका जाता, बल्कि ऐसी महिलाओं के साहस । स्वस्मै योऽसौ हितोऽध्यायः स्वाध्यायो वाचनादिकः। 24 दिसम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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