Book Title: Jinabhashita 2009 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ पंचकारणसमवाय आगमोक्त नहीं २ प्रो० रतनचन्द्र जैन जिनभाषित के नवम्बर २००९ के अंक में यह स्पष्ट किया गया था कि पंडित बनारसीदासकृत नाटक समयसार का 'पद सुभाऊ पूरब उदै' इत्यादि दोहा पंचकारणसमवाय का प्रतिपादक नहीं है। यहाँ इस मत के समर्थन में दिये जानेवाले अन्य प्रमाणों पर विचार किया जा रहा है। गोम्मटसार का कथन एक प्रमाण यह दिया जाता है कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कारणविषयक पाँच एकान्तवादों का उल्लेख किया गया है। उसका आशय यह है कि जो इनमें से किसी एक से कार्य की उत्पत्ति मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है और जो कार्य की उत्पत्ति में इन पाँचों के समवाय को स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है। | इसके विरोध में पहली बात तो यह है कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कारणविषयक पाँच एकान्तवादों का नहीं, सात का वर्णन है काल, ईश्वर ( पूर्वकृत कर्म), नियति, स्वभाव, पौरुष, दैव और संयोग । इनमें से दो को छोड़कर केवल पाँच के समवाय से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मानने वाला सम्यग्दृष्टि है यह आशय किस आधार पर निकाला गया, इसका कोई समाधान नहीं है। गोम्मटसार के कर्त्ता ने प्रत्येक मत को कथंचित् स्वीकार करना सम्यक् बतलाया हे और मतों की कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। इसलिए सातों कारणों के समवाय से अथवा जितने भी कारण संभव है उन सबके समवाय से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति माननेवाले को सम्यग्दृष्टि माना जाना चाहिए, न कि केवल पाँच कारणों के समवाय से मानने वाले को । प्रत्येक किसी न किसी कार्य का कारण किन्तु गोम्मटसार के कथन का यह आशय ही निकालना असंगत है कि प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति पाँच या सात या और अधिक कारणों के समवाय से होती हे। आइये हम देखें कि आचार्य नेमिचन्द्रजी ने गोम्मटसार में जो कहा है उसका आशय क्या है? आचार्यश्री ने यह कहा है कि 'कुछ लोग मानते हैं कि काल ही सब कुछ करता है, कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर ही सब कुछ करता है, कुछ का मत है कि नियति ही सब करती है, किन्हीं का मान्यता है कि स्वभाव ही Jain Education International देव ही सब कार्यों का कर्त्ता है, और कुछ मानते हैं कि संयोग से ही सब कार्य होते हैं । किन्तु जैन किसी भी मत को सर्वथा नहीं मानते, अपितु कथंचित् (अंशतः) मानते हैं, इसलिए उनकी मान्यता सम्यक् होती है और दूसरों की मिथ्या ।" (गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा ८७९८९५) । इसका आशय तो यह है कि जैनमत इनमें से किसी को भी सभी कार्यों का कारण नहीं मानता, अपितु प्रत्येक को किसी न किसी कार्य का कारण मानता है। आचार्यश्री का कथन यही तो है कि काल आदि सभी को कथंचित् कारण माना जाये। सबको कथंचित् कारण मानने का तात्पर्य यह कैसे हो सकता है कि सबको प्रत्येक कार्य का कारण माना जाय ? एकान्तवादियों की मान्यता यह नहीं है कि अन्य कारणतत्त्व प्रत्येक कार्य के कारण न होकर कुछ ही कार्यों के कारण हैं। मान्यता यह है कि वे किसी भी कार्य के कारण नहीं हैं। अतः समाधान यह होना है कि काल आदि सभी में कारणत्व है या नहीं अर्थात् वे किसी कार्य के कारण हैं या नहीं? बस इसी का समाधान आचार्यश्री ने 'कथंचित्' शब्द से किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि सभी में किसी न किसी कार्य की अपेक्षा कारणतत्व है। अतः कालादि सभी कथंचित् कारण हैं, इसका यह अभिप्राय कहाँ फलित होता है कि वे प्रत्येक कार्य के कारण हैं, इसलिए किसी एक कारण से कार्य की उत्पत्ति मानने वाला मिथ्यादृष्टि है और पाँच के समवाय से मानने वाला सम्यग्दृष्टि है? फिर आचार्यश्री ने स्वयं सात कारणों का वर्णन किया है। उनमें से वे केवल पाँच कारणों के समवाय से कार्योत्पत्ति मानने को किस आधार पर समीचीन बतला सकते हैं? क्या दो को तथा अन्य संभावितों को सर्वथा अस्वीकार कर देने से वे स्वयं मिध्यादृष्टि नहीं बन जाते? " दूसरी बात यह है कि सभी कारणों या पाँच कारणों सब कार्यों का कारण है, कुछ मानते हैं कि पौरुष से ही सब कुछ होता है, कुछ लोगों की धारणा है कि से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मानना तर्कसंगत भी नहीं For Private & Personal Use Only 'दिसम्बर 2009 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org

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