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है। इसके निम्नलिखित कारण हैं
हैं। स्वभाव से कार्य होने में कंटक आदि की तीक्ष्णता १. पहला तो यह कि एक अकेली नियति को | तथा पशु-पक्षियों की विधता का दृष्टान्त दिया गया प्रत्येक कार्य का कारण मान लेने से अन्य सभी कारण | है। संयोग से कार्य होने में दो चक्कों के संयोग से निरर्थक हो जाते है, क्योंकि नियति में सभी कारण गर्भित | ही रथ चल पाने तथा परस्पर सहयोग से अन्धे और होते हैं। सम्पूर्ण कारण सामग्री के नियत होने का नाम | लँगड़े के नगर में प्रविष्ट होने का दृष्टान्त है। पुरुषार्थ ही तो नियति है। यह गोम्मटसार में वर्णित नियतिवाद | के अन्तर्गत बिना प्रयत्न के स्तनपान जैसे सुकर कार्य के निम्नलिखित लक्षण से स्पष्ट हो जाता है- न कर पाने का दृष्टान्त है। ईश्वरवाद या कर्मवाद । जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।। सिद्धि सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक-गमन आदि कार्यों के तेण तहा तस्स हवे इति वादो णियदिवादो दु॥| दृष्टान्त द्वारा की गई है। दैववाद का औचित्य ठहराने
. अर्थात् जिसका जो, जब, जिसके द्वारा, जिस विधि | के लिए राजा कर्ण के अत्यन्त पराक्रमी होते हुए भी से नियमानुसार होना है, उसका वह, उस समय, उसके युद्ध में मारे जाने का दृष्टान्त दिया गया है। हम देखते द्वारा, उस विधि से होता है। इस प्रकार सब कुछ नियत | हैं कि इन भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यों की अपेक्षा ही मानना नियतिवाद है।
| इन सभी कारणों की कारणात्मकता घटित होती है। कोई __यहाँ नियति में 'जब' शब्द से काल की, 'जिसके | भी कारण किसी दूसरे प्रकार का कार्य करने में समर्थ द्वारा' तथा 'जिस विधि से' (यथा) शब्दों द्वारा निमित्त, नहीं है। उदाहरणार्थ, कंटक आदि में विद्यमान तीक्ष्णता पुरुषार्थ आदि सम्पूर्ण कारण सामग्री की नियतता दर्शायी | तथा पशु-पक्षियों की विविधता स्वभाव नामक कारण गई है। इस प्रकार एक मात्र नियति को प्रत्येक कार्य से ही संभव है, संयोग अथवा पुरुषार्थ से कदापि संभव का कारण मान लेने से अलग से किसी भी अन्य कारण | नहीं है। अन्धे और लगड़े के परस्पर सहयोग द्वारा गन्तव्य को मानने की आवश्यकता नहीं रहती।
तक पहुँचने में स्वभाव का कोई योगदान नहीं है। इसी २. दूसरे, काल, स्वभाव, पूर्वकृत कर्म (ईश्वर) | | प्रकार सुख-दुःख भोग तथा स्वर्ग-नरक-गमन स्वभावजन्य आदि में से अनेक विरुद्धस्वभावी हैं, अतः वे सबके | नहीं हैं, कर्मकृत ही हैं। यदि कंटकादि की तीक्ष्णता
क कार्य के कारण हो भी नहीं सकते। उदाहरणार्थ, को स्वभाव से भी उत्पन्न माना जाये और संयोग, पुरुषार्थ आत्मा के दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग आदि स्वभावजन्य कार्यों | आदि से भी तो यह युक्ति और आगम के विरुद्ध होगा। में पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ कारण नहीं हो सकते, इसी | अतः स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न कार्यों की अपेक्षा ही प्रकार मोहरागादि कर्मजनित कार्यों में स्वभाव एवं पुरुषार्थ | | उपर्युक्त कारणों की कारणात्मकता सत्य सिद्ध होती है। आदि का कारण होना संभव नहीं है।
इसके पीछे तथ्य यह है कि कालादि कारण परस्पर ३. कार्यों में भी विभिन्नता है। इस कारण प्रत्येक | भिन्नस्वभावी एवं विरुद्धस्वभावी हैं, अतः सभी कार्यों कार्य में सभी कारण आवश्यक भी नहीं हैं। आत्मा के | की अपेक्षा उनकी कारणात्मकता घटित नहीं हो सकती। स्वाभाविक परिणमन के लिए कर्मरूप कारण की जैसे द्रव्य की अपेक्षा वस्तु का नित्यत्व घटित होता है आवश्यकता नहीं है। जन्म और मरण, संयोग और वियोग | और पर्याय की अपेक्षा अनित्यत्व, वैसे ही भिन्न-भिन्न आदि के लिए पौरुष अनावश्यक है, वे कर्म द्वारा नियत | कार्यों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न कारणों की कारणात्मकता हैं। संसार और मोक्ष नियति पर निर्भर नहीं है, पुरुषार्थ | घटित होती है। कारण-विषयक एकान्तवादों की के अधीन हैं। रागद्वेषादि स्वभावजन्य नहीं हैं, कर्मनिमित्तक एकान्तात्मकता का हेतु यही तो है कि उनमें से प्रत्येक
कुछ ही कार्यों का कारण है, किन्तु उसे सभी कार्यों अतः गोम्मटसार में वर्णित सभी कारणों को प्रत्येक का कारण मान लिया गया है। कार्य का हेतु स्वीकार नहीं किया जा सकता, अलग- इस प्रकार हम देखते हैं कि गोम्मटसार में आचार्य अलग कार्यों का ही हेतु स्वीकार किया जा सकता है।| नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कारणविषयक एकान्तवादों इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि गोम्मटसार | के विषय में जो कहा है, उसका आशय यह कदापि में वर्णित एकान्तवादियों ने अपने मत के समर्थन में | नहीं हैं कि जो किसी एक कारण से कार्य की उत्पत्ति जिन कार्यों के दृष्टान्त दिये हैं वे परस्पर अत्यन्त भिन्न | मानता है, वह मिथ्यावृष्टि है और जो पाँच कारणों के
16 दिसम्बर 2009 जिनभाषित
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