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विसर्जन का सम्बन्ध तो आह्वान आदि के साथ है। जब । बात उक्त श्लोक के पूर्वार्द्ध द्वारा कही गयी है, "जिन किसी को बुलाया जाता है, तो उसे बिदा भी किया | देवों को पूजन के प्रारम्भ से पहले आहूत किया था जाता. है। जब बुलाया ही नहीं जाता तो विदा करने का | और जिन्होंने क्रमानुसार अपना-अपना भाग पा लिया है, प्रश्न ही नहीं रहता।
वे मेरे द्वारा पूजित होकर अपने-अपने स्थान को जायें।" आगे चलकर पूजा की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। | जिनेन्द्रदेव तो न कहीं जाते हैं और न पूजा का धर्मसंग्रह श्रावकाचार (वि० सं० १५१९ के लगभग) | | द्रव्य ग्रहण करते हैं। किन्तु वैदिक विधि के अनुसार और लाटी संहिता (वि० सं० १६४१) में आह्वान, स्थापन, | इन्द्रादि देवताओं का आह्वान यज्ञ में किया जाता है और सान्निधीकरण, पूजन और विसर्जन ये पाँच प्रकार पूजा | अग्नि देवताओं का मुख है, अतः उस-उस देवता के के बतलाये हैं। सम्भवतया आशाधर (वि० की तेरहवीं | उद्देश्य से मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्नि में जो आहुति दी जाती शताब्दी का अन्त) के पश्चात् ही उक्त प्रक्रिया ने पूजा | है, वह उस-उस देवता को पहुँच जाती है, ऐसी वैदिक में स्थान ग्रहण किया है, क्योंकि आशाधर के काल तक | मान्यता है। उसी मान्यता का प्रभाव उत्तरकाल में के साहित्य में ये पाँच प्रकार देखने में नहीं आते। | जैनपूजाविधि में भी प्रविष्ट हो गया प्रतीत होता है। इन्द्र,
प्रश्न यह है कि यह आह्वान आदि की विधि | वरुण आदि वैदिक देवता हैं। उन्हीं को प्रसन्न करके जैनपरम्परा में कैसे प्रविष्ट हुई? सोमदेव सूरि ने स्थापन उनकी कृपाकामना के लिए वैदिक यज्ञ किये जाते थे। और सन्निधापन के पश्चात् तथा अभिषेक से पहले विघ्नों | यज्ञ तो जैनों और बौद्धों के विरोध के कारण एक तरह की शान्ति के लिये इन्द्र, अग्नि, यम आदि देवताओं | से बन्द हो गये। उसके साथ ही वैदिक देवताओं का से बलिग्रहण करके अपनी-अपनी दिशा में स्थित होने | भी पुराना स्थान जाता रहा, फिर भी लौकिक मान्यता की प्रार्थना की है, किन्तु उन्हें बुलाकर भी उनका विसर्जन | बनी रही। सम्भवतः उसी मान्यता ने जैनों की पूजाविधि नहीं किया है। देवसेनकृत भावसंग्रह में इन्द्रादि देवताओं को भी प्रभावित कर दिया। सोमदेवने तो केवल दिक्पालों का आह्वान तथा उन्हें यज्ञ का भाग अर्पित करके पूजन | ओर नवग्रहों का आह्वान मात्र करके उनसे बलिग्रहण के अन्त में उन आहूत देवों का विसर्जन भी किया | करने की प्रार्थना की है, किन्तु आशाधर ने अपने है। इस तरह जो आह्वान और विसर्जन इन्दादि देवताओं | | प्रतिष्ठापाठ में नवग्रहों का वर्णन करके उन सब को के निमित्त से किया जाता था, आगे उसे पूजा का | पृथक्-पृथक् बलि प्रदान करने का विधान किया है। आवश्यक अंग मानकर जिनेन्द्रदेव के लिए ही किया जाने लगा। आजकल पूजन के अन्त में विसर्जन करते | सन्दर्भ हुए नीचे का यह श्लोक भी पढ़ा जाता है- १. सब्भावासब्भावा दुविह ठवणा जिणेहि पण्णत्ता।
आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम्। | सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोपणं पढमा ।। ३८३ ॥
ते मयाऽभ्यर्चिताः भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम्॥ अक्खय वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णिययबुद्धीए। इसी को हिन्दी में इस प्रकार पढ़ा जाता है
संकप्पिऊण वयणं एसा बिइया असब्भावा ।। ३८४ ।। आये जो जो देवगण पूजे भक्ति समान।
(वसुनन्दि-श्रावकाचार) ते सब जावहु कृपा कर अपने अपने थान॥ २. आवाहिऊण देवे सुरवइ सिहिकालणेरिए वरुणे।
मुक्तात्माओं के लिए यह कितना बेतुका और पवणे जखे ससूली सपिय सवाहणे ससत्थे य॥ ४३९ ।। हास्यास्पद है। वास्तव में यह विसर्जन पूजन के प्रारम्भ
दाऊण पुज्जदव्वं बलिचरुयं तह य जण्णभायं च। में आहत इन्द्रादि देवताओं के लिए है, जिनेन्द्रदेव के
सव्वेसिं मंतेहिं य वीयक्खरणामजुत्तेहि ॥ ४४० ।। लिये नहीं है। संस्कृत के श्लोक में जो 'पुरा' 'यथाक्रम
झाणं झाऊण पुणो मज्झाणियवंदणत्थ काऊणं। लब्धभागाः' पद हैं वे इस कथन के समर्थक हैं। 'पुरा'
उवसंहरिय विसज्जउ जे पुव्वावाहिया देवा ॥ ४८१॥ का अर्थ है पहले अर्थात् पूजन आरम्भ करने से पूर्व ।
(भावसंग्रह) ऊपर लिखा जा चुका है कि उपासकाध्ययन में तथा
सोमदेवसूरि : उपासकाध्ययन/भारतीय ज्ञानपीठ/ भावसंग्रह में अभिषेक से पहले इन्द्रादि देवताओं को | १९६४ ई० / प्रस्तावना / पृ० ५०-५३ से साभार बुलाकर उन्हें बलि या यज्ञभाग देने का विधान है। यही 12 दिसम्बर 2009 जिनभाषित
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