Book Title: Jinabhashita 2009 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ तीयैः प्रक्षाल्य सच्चूर्णैः कुर्यादुद्वर्तनक्रियाम् । पुनर्नीराजनं कृत्वा स्नानं कषायवारिभिः॥ ४४॥ चतुष्कोणस्थितैः कुम्भैस्ततो गन्धाम्बुपूरितैः । अभिषेकं प्रकुवरन् जिनेशस्य सुखार्थिनः ॥ ४५ ॥ स्वोत्तमाङ्ग प्रसिंच्याथ जिनाभिषेकवारिणा । जलगन्धादिभिः पश्चादर्चयेद्विम्बमर्हतः ॥ ४६ ॥ स्तुत्वा जिनं विसर्ज्यापि दिगीशादिमरुद्गणान् । अर्चिते मूलपीठेऽथ स्थापयेज्जिननायकम् ॥ ४७॥ (श्रावकाचारसंग्रह / भाग ३ / पृ. ४६७ - ४६८) अनुवाद - " स्नानपीठ को दृढ़ता से स्थापित कर, शुद्ध जल से धोकर तथा उस पर 'श्री' बीजाक्षर लिखकर गन्ध आदि से उसे पूजना चाहिये। उसके बाद स्नानपीठ के चारों ओर, जिनके मुख पर पल्लव रखे हों तथा जो पवित्र जल से भरे हों, ऐसे चार कलश स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् मूलपीठ पर विराजमान जिनेश्वर की अर्चना कर आह्वानविधि करके उन्हें विनयपूर्वक स्नानपीठ तक पहुँचाना चाहिए और उस पर उनकी स्थापना और सन्निधापन करना चाहिए। फिर आरती करके उन्हें जल, गन्ध आदि से पूजना चाहिए। " ( ३७-४० ) । " तदनन्तर इन्द्रादि अष्ट दिक्पालों (दिशारक्षाकों) का आह्वानकर, उन्हें आठ दिशाओं में, चन्द्रमा का आह्वानकर ऊर्ध्व दिशा में तथा धरणेन्द्र को आह्वानपूर्वक अधोदिशा में स्थापित कर उनके अपने-अपने मन्त्रों के साथ उन्हें बलि (पूजाद्रव्य) प्रदान कर प्रसन्न करना चाहिए।" (४१-४२) । " फिर घट उठाकर जल, नारिकेल एवं इक्षु के रस, उत्तमघृत, दूध तथा दही से जिनेन्द्रदेव का स्नपन करे। तत्पश्चात् जल से प्रक्षालित कर उत्तम चूर्णों से उनका उपटन करे। उसके बाद आरती उतारकर सुगंधित जल से स्नान कराये । तदनन्तर चारों कोनों में रखे हुए सुगन्धित जल से परिपूर्ण चारों कलशों से सुखाभिलाषी जन जिनेन्द्र का अभिषेक करें। फिर जिनाभिषेकजल को अपने मस्तक पर छिड़कने के बाद जलगन्धादि से जिनबिम्ब की पूजा की जाय । पूजा सम्पन्न होने के बाद जिनदेव की स्तुति करनी चाहिए। उसके बाद दिक्पालादि देवों को विसर्जन करके, जिनेन्द्र देव को अर्चित मूलपीठ पर विराजमान कर देना चाहिए।" (४३-४७)। इन श्लोकों से स्पष्ट होता है कि पं० वामदेव के अनुसार जिनप्रतिमा को मूलपीठ से उठाकर स्नानपीठ तक पहुँचाना आवाहनविधि है, स्नानपीठ पर स्थापित करना स्थापनाविधि है और इस प्रकार जिनेन्द्रदेव को पूजक द्वारा अपने समीप कर लेना सान्निधापन विधि है । तथा अभिषेक पूजन के पश्चात् जिनबिम्ब को स्नानपीठ से उठाकर मूलपीठ पर स्थापित कर देने की क्रिया विसर्जन मानी जानी चाहिए । यहाँ ध्यान देने योग्य है कि पं० वामदेव जी ने जिनेन्द्रदेव के विसर्जन का नियम नहीं बतलाया, अपितु दश दिक्पालों के विसर्जन की बात कही है। प्राकृत भावसंग्रह में जिनेन्द्र के आवाहनादि का उल्लेख ही नहीं आचार्य देवसेन (१०वीं शती ई०) ने अपने प्राकृत 'भावसंग्रह' में जिनप्रतिमा पूजाविधि के अन्तर्गत जिनेन्द्रदेव के आवाहन, स्थापन, सन्निधीकरण एवं विसर्जन का उल्लेख ही नहीं किया, केवल जिनप्रतिमा के अभिषेक और पूजन करने का कथन किया है। हाँ, दश दिक्पालों के विषय में अवश्य कहा गया है कि उनका आह्वान कर उन्हें पूजाद्रव्य, बलि, चरु (नैवेद्य) और यज्ञभाग दिया जाय। किन्तु उनकी स्थापना एवं विसर्जन की चर्चा नहीं की गई। देखिए, देवसेनकृत प्राकृतभावसंग्रह की निम्नलिखित गाथाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2009 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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