Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ चतुर्थ अंश जिनशासन में चौथा लिङ्ग नहीं आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का चतुर्थ अंश प्रस्तुत है। २८ मूलगुणों के साथ जो जिनलिङ्ग स्थापित किया | की नहीं, जिनलिङ्ग की पूजा होती है। वह ट्रेडमार्क है उसके अलावा जो कोई भी लिङ्ग है वह जिनलिङ्ग | है। उसके माध्यम से मालूम होना चाहिए। वह ट्रेडमाके नहीं है। इसलिए जिनेन्द्र भगवान के शासन में, जिनवाणी | लगा लिया। आपने लेबल लगा लिया और लोगों को में तीन ही लिङ्ग हैं पंडित जी! चौथा लिङ्ग कोई भी समझा दिया। ऐसा नहीं होना चाहिए। पूज्यपाद और नहीं आ सकता। यदि चौथा लिङ्ग आ गया तो पूछ | कुन्दकुन्द स्वामी के अनुसार मार्ग होना चाहिए। जिनशासन लेना, कहाँ से आ गया? कौन से दरवाजे से आ गया? | में चौथा लिङ्ग हो नहीं सकता। कुन्दकुन्द स्वामी ने दर्शनपाहुड में तीन ही लिङ्ग लिखे घटना से जब तक हम अवगत नहीं होते हैं, तब हैं। हम यह कहना चाहते हैं। समझ में आया क्या? | तक कुछ प्राथमिक औपचारिकताएँ, चिकित्सायें होती हैं। जिस विधि से बताया गया है हम उसी विधि से बतायेंगे। प्राथमिक चिकित्सा अपने हाथ से करना सीख लो। कभी यदि निषेध से बताया तो हम निषेध से बतायेंगे। चौथा | भी गिर सकते हैं। ऐसा नहीं कि गिरते चले जा रहे लिङ्ग हो नहीं सकता। यदि है तो कोई आगम से बताये | हैं, फिर भी चिकित्सा नहीं हो रही है। ऐसा नहीं होता, हमकों। प्रवचनसार की दो गाथायें पठनीय हैं। बार-बार | नहीं समझे? मान लो-यदि आप गिर गये तो तत्काल तो पढ़ते हैं आप लोग। हाँ, चारित्रचूलिका में ये गाथायें | कुछ बाँध लें तो अच्छा है। 'मैं अपनी नयी धोती कैसे आयी हैं फाड़ सकता हूँ? बहुत कीमती है महाराज!' छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। कैसी भी हो तत्काल फाड़ो और बाँधो, तो रक्त ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि।। २५६॥ नहीं बहेगा और डॉक्टर के यहाँ ले जाकर भर्ती कर जो जीव छदमस्थ विहित वस्तुओं में (अज्ञानी के | दो। चिकित्सा वहाँ से लेना है। बाँधने का कार्य बहत द्वारा कथित देवगुरु धर्म आदि में) व्रत, नियम, अध्ययन, | अच्छा होगा। इतना ही यहाँ पर कहा गया है। कोई दिगम्बर ध्यान, दान में रत होता है, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं | होकर के मछली भी पकड़ रहा है, तो पहले नमस्कार होता, किन्तु सातात्मक भाव को प्राप्त होता है। कर लो। फिर अपनी बात मीठी वाणी में कहो, आपकी विदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु। | यह दशा कैसे हो गयी? हमारे रहते हुए आपने इस जुठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ।। २५७।। घिनौने कार्य को करने का कैसे निश्चय कर लिया? 'जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जिनके | बिल्कुल उपचार करना प्रारंभ कर दो। क्योंकि स्थितीकरण विषय-कषाय की प्रबलता है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, करना आवश्यक है। इससे आगे नहीं बढ़ना है, यही उपकार, दान कुदेवरूप और कुमनुष्यरूप में फल देता तो है। 'अरे! कुछ नहीं है वहाँ पर, अरे! कुछ नहीं' है।' दो बातें हैं, यदि आप लिङ्ग से लिङ्गान्तर को ग्रहण ऐसा कैसे कहते हो? 'हमने अपनी आँखों से देखा है।' करेंगे और फिर भी प्रवचन करेंगे. व्रत. नियम. अनष्ठान | जिनलिङ्ग कहा कि जिनबिम्ब कहा, दोनों, भूल गये इत्यादि आप देते हैं धारण करने के लिए, तो लेने वाले | ऐसा नहीं होता। देखो, यदि बहुमत बना करके तत्त्वनिर्णय का कल्याण नहीं होगा। कुन्दकुन्द स्वामी ने स्पष्ट लिखा करना चाहते हो तो हमारे पास न आओ। ध्यान रखो, है- जिनके पास जिनलिङ्ग नहीं है, फिर भी वे धर्मोपदेश | आचार्यों ने 'अदत्तादानं स्तेयं' कहा है। किसी की आस्था आदि देना चाह रह हैं तो वे जिनलिङ्ग के बाहर हैं। को हम जबरदस्ती बदल नहीं सकते हैं। किसी को कोई भी हो इससे हमें क्या लेना देना। यह महावीर | जबरदस्ती अपना समर्थक नहीं बनाया जा सकता। यदि की वाणी है। ऋषभदेव की वाणी है। हमारे यहाँ व्यक्ति | बनायेंगे, तो वह केवल अन्धसमर्थक ही बनेगा। आप 4 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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