Book Title: Jinabhashita 2009 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय चातुर्मास के बाद अब क्या? भगवान् महावीर निर्वाणदिवस-दीपावली की पूर्व रात्रि में प्रायः सभी संतों ने चातुर्मास (वर्षायोग) निष्ठापनक्रिया सम्पन्न की और अन्यत्र गमन कर दिया है, ताकि साध्वाचार की परम्पराओं का पालन हो सके। कतिपय आचार्य / आर्यिका / मुनि संघ ऐसे भी हैं, जो प्रायः एक ही स्थान पर रहते हैं, चातुर्मास के पहले भी और चातुर्मास के बाद भी, उन्हें यह विचार करना चाहिए कि वे अनियत विहार / प्रवास की व्याख्या कैसे करेंगे और उनके द्वारा भी, जो दीक्षित होंगे उन्हें क्या संदेश देंगे? अनियत विहार की यह प्रखर परम्परा बन्द नहीं होनी चाहिए। साधु के एक ही स्थान पर रहने से वहाँ के गृहस्थों में अवज्ञा का भाव जन्म लेता है, आवश्यकों, वैयावृत्ति, भक्ति आदि में भी त्रुटि आने लगती है। श्रावकों/ गृहस्थों में धर्म और धर्माचरण तथा साधुवन्द के प्रति ऊब न हो तथा, जिन्हें धर्मश्रवण, मुनिभक्ति, आहारदान, वैयावृत्ति के अवसर नहीं मिलते, उन्हें भी यह अवसर मिल सके इसके लिए साधु का अनियत विहार आवश्यक है। यदि अनियत विहार बन्द होता है, तो वर्षायोग स्थापना का भी कोई औचित्य नहीं रह जायेगा। विहार के समय आजकल विशेष सावधानी की जरूरत है, क्योंकि कतिपय ट्रक चालक मुर्मा नग्नरूप से वितष्णा के कारण और आर्यिकाओं में महिलाजनित सौन्दर्य एवं अपनी कुदृष्टि के कारण जानबूझकर कट मारते हैं और निर्दोष संतों को असमय कालकवलित होना पड़ता है। समाज को संतों के आहार-विहार की समुचित व्यवस्था विशेषरूप से विहारकाल में करनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि एक स्थान की समाज साधु को अगले प्रवास स्थल तक पहुँचाकर आये। जो साधु रात्रि में या अंग्रेजी दिनाङ्क बदलने के साथ रेल्वे समय के अनुसार प्रायः ३ बजे, ४ बजे और वह भी कारों की 'लाइट' में विहार करते हैं यह अनुचित है, शास्त्रविरुद्ध है और समयानुकूल भी नहीं है। इस पर पूरी तरह से रोक लगनी चाहिए। यदि इस तरह की क्रिया करते समय कोई दुर्घटना-वश मरण होता है तो इसे 'समाधि' "कैसे कहें या शासन को कैसे कोसें? आजकल कतिपय संघ डोली, कुर्सी (चलित) और रिक्शा-टाइप रथ, पालकी में विहार करने लगे हैं, क्षुल्लकों के लिए तो कार, ट्रेन, हवाई जहाज आम बात हो गयी है। इस पर तुरन्त रोक लगनी चाहिए। हम अहिंसा और ईर्यापथशुद्धि पर भी तो विचार करें कि ऐसा करने पर वह कैसे संभव है? . आज जैनसमाज में लौकिक शिक्षा का सूचकांक उच्च है। लड़कियाँ भी अब पीछे नहीं हैं, लेकिन धार्मिक शिक्षण की स्थिति का सूचकांक निम्न से निम्न स्तर तक पहुँच रहा है। महानगरों में बच्चों, किशोरों, युवाओं का मन्दिर में आना बन्द है। पाठशालाएँ नहीं हैं, और हैं भी, तो उनमें बच्चे भेजने के प्रति उत्साह का अभाव है। आज हम बड़े गर्व से कहते हैं कि महिलाएँ धर्मपरायण हैं और उनके सहारे धर्म चल रहा है, किन्तु जो आज की लड़कियाँ कल गृहस्थ जीवन में प्रवेश करेंगी, तो वे कौन-सी आस्था, कौन-सा धर्म, उपासनापद्धति लेकर आयेंगी, यह चिन्ता का विषय है। आज भी परिवारों में शिक्षा एवं संस्कार माँ ही देती है, अतः मातृवर्ग का धर्म से जड़ा रहना पहली आवश्यकता है। इस हेत् धार्मिक शिक्षण के निरन्तर उपक्रम चलना चाहिए, तभी हमने जो चातुर्मास में संतों के मुख से सुना उसे आगे बढ़ा सकते हैं। धार्मिक उपदेश / शिक्षण हमारे लिए इसलिए जरूरी हैं कि धर्मं केऽपि विदन्ति तत्र धुनते सन्देहमन्येऽपरे, तद्भ्रान्तेरपयन्ति सुष्ठु तमुशन्त्यन्येऽनुतिष्ठन्ति वा। 2 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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