Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ है। सप्तम अंश तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता सप्तम अध्याय मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि च सत्व- । सोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवत-सम्पन्नश्च॥ गुणाधिक-क्लिश्यमानाविनेयेषु॥१॥ २१॥ ___सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक व | । सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक व सुखबोधतत्त्वार्थसुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की | वृत्ति- 'च' शब्दो वक्ष्यमाणगृहस्थधर्मसमुच्चयार्थः। अर्थ- सूत्र में जो 'च' शब्द है वह आगे कहे ___ तत्त्वार्थवृत्ति-चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते, | जानेवाले गृहस्थधर्म के संग्रह करने के लिए दिया है। पूर्वोक्तसूत्रार्थेषु अत्र च। श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दः सूत्रेऽनुक्तसमुच्चयार्थः __अर्थ- चकार परस्पर समुच्चय के लिए है, जिससे प्रागुक्तसमुच्चयार्थात्। तेन गृहस्थस्य पंचाणुव्रतानि पूर्व में कहे गये सूत्रों का अर्थ यहाँ भी हैं। | सप्तशीलानि गुणवतशिक्षाव्रतभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः भावार्थ- हिंसादि पाँचों पाप इहलोक एवं परलोक सम्यक्त्वपूर्वकाः सल्लेखनान्ताश्च महाव्रततच्छीलवत्। दोनों में अपाय एवं अवध का दर्शन कराने वाले हैं अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द अनुक्त के समुच्चय के एवं दुःख रूप ही हैं। ऐसी भावना करनी चाहिये। उसी | लिए है एवं पूर्व में कहे गये व्रतादि का समुच्चय होने प्रकार जीवों पर मैत्री भाव, गुणी जनों के प्रति प्रमोद | से उनका भी ग्रहण होता है, जिससे गृहस्थ के पाँच भाव, दुःखी जीवों पर करुणाभाव और अविनयी जीवों | अणुव्रत और सात शीलरूप गुणव्रत और शिक्षाव्रत हो के प्रति माध्यस्थ्य भाव होना चाहिए। इनसे भी पांचों | जाते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक सल्लेखनान्तर्वर्ती ये व्रत पूर्णता को प्राप्त होते हैं। मध्यवर्ती बारह दीक्षा के भेद गृहस्थ के हैं, जैसे कि अगार्यनगारश्च ॥ १९॥ महाव्रत और उसके परिरक्षक शील होते हैं। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक व तत्त्वार्थवृत्ति- चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की | वक्ष्यमाणसल्लेखनादियुक्तः अगारीति कथ्यते। अर्थ- सूत्र में च शब्द अनुक्त के समुच्चय के तत्त्वार्थवृत्ति- अगारी च अनगारश्च द्विप्रकारो | लिए है, जिससे आगे कही जानेवाली सल्लेखना आदि व्रती भवति। चकारः परस्परसमुच्चयार्थः। से युक्त गृहस्थ होता है, यह कहा गया है। . अर्थ- अगारी (गृहसहित) और अनगार (गृह- भावार्थ सूत्र में 'च' शब्द से श्रावकों के १२ व्रत रहित) व्रती दो प्रकार के होते हैं। सूत्र में चकार शब्द | होते हैं एवं वह अन्त समय में सल्लेखना को ग्रहण परस्पर समुच्चय के लिए है। | करता है, इन सबका समुच्चय हो जाता है। भावार्थ- व्रती के २ भेद होते हैं- १. अगारी श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान (घरसहित), २. अनगारी (घररहित)। सांगानेर, जयपुर (राज.) दिग्देशानर्थदण्डविरति-सामायिक-प्रोषधोपवा भतृहरि-नीतिशतक । लाङ्गलचालनमधश्चरणावतापं, भूमौ निपत्यवदनोदरदर्शनञ्च। श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु, धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते॥ कुत्ता खाना खिलानेवाले के आगे पूँछ हिलाकर, पैरों पर गिरकर, भूमि पर लोटकर तथा पेट दिखाकर चापलूसी करता है, किन्तु हाथी भोजन करानेवाले को निःस्पृहता से देखता रहता है और बहुत मनाने पर ही खाता है। -नवम्बर 2009 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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