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बारह भावना (वसन्त तिलका छन्द)
- मुनि श्री योगसागर जी
जो राग-द्वेष करता भव को बढ़ाता। ये मूल कारण यही अघ को बुलाता। आस्त्रव्य मार्ग इसको कहते महात्मा। यों जान के बुध जनो भजलो निजात्मा।
स्वर्गादि वैभव तथा बलकीर्ति सत्ता। नाना प्रकार सुख साधना औ प्रवक्ता॥ संसार के सुख सभी पल में विनाशी। हैं मोह के फल सभी छण में उदासी॥
२ माता पिता बहन औ धन-सम्पदा है। ये मृत्यु के समय में न बचा सके हैं। तो कौन हैं जगत में शरणा तुझे हैं। हैं देव-शास्त्र-गुरु ही शरणा मुझे हैं।
वैराग्य भाव जिसका मजबूत होगा। ओ कर्म के उदय में न कभी डिगेगा। संसार का दहन संवर भाव से है। यों मोक्ष का पथ सुसाधक साधते हैं।
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हैं चार ये गति सदा जग में रुलायें। जो पूर्व में करम अर्जित हो भले ही। ये मोह के फल सदा सब को चखायें। ओ ना कभी फल दिला सकता कभी ही। जो ज्ञान ध्यान करते भव को नशाते।। जो ज्ञान ध्यान तप आदिक में ढला हो। वे धन्य हैं अमर जीवन को बिताते॥ यो निर्जरा तुम करो सुख चैन जीवो॥
१० ये तीन लोक भर में इसका न कोई।। जीवादि द्रव्य रहते वह लोक जानो। प्रत्येक जीव रखते निज स्वार्थ को ही॥ जो लोक के बहिर भाग अलोक मानो। एकत्व रूप निज आतम ही खरा है। मोही सदा भटकता इस लोक में ही। यों जान के सब विकल्प निवारते हैं। वे लोक के शिखर पे रहते निजात्मी॥
११ क्यों मोह भाव करते जड़ पुद्गलों से। जो दीर्घकाल सबने दुख में बिताया। तेरे न साथ चलते धन धान्य पैसे॥ सौभाग्य से मनुज जीवन को सुपाया। अध्यात्म बोध कर के पर भाव त्यागो। हे भव्य दुर्लभ सुवर्ण घड़ी न भूले। सच्चा यही परम जीवन को बनाओ॥ खोजो सभी परम आतम रत्न पाले॥
१२ नाना प्रकार मल को तन ही बनाता। है धर्म एक जग में शरणा दिलाता। प्रत्येक सुन्दर पदार्थ मलीन होता॥ जो वीतरागमय जीवन को बनाता॥ दुर्गन्ध युक्त तन से ममता नहीं है। संसार के सुख तथा निज सौख्य दाता। वे भव्य त्याग तप से डरते नहीं हैं। ऐसा महा धरम ही सबको सुहाता॥
प्रस्तुति -प्रो० रतनचन्द्र जैन
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