Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं० आलोक शास्त्री जैन दर्शनाचार्य, । प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुभपरिणाम ललितपुर। कहा गया है तथा अप्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान जिज्ञासा- 'धर्ममंगल' के २ अक्टूबर २००९ के | तक तारतम्य से शुद्धोपयोग कहा गया है। अंक में वीरसागर जी की डायरी से सिद्ध किया गया है | भावार्थ- इस टीका में भी आचार्य जयसेन ने पंचम कि आचार्य जयसेन भी, श्रावकों को शुद्धोपयोग है, ऐसा | गुणस्थानवर्ती श्रावक के शुभोपयोग ही कहा है। कहते हैं। क्या आप इससे सहमत हैं? ३. प्रवचनसार गाथा २६० की टीका में आचार्य ' समाधान- किसी भी जिनवाणी से संबंधित प्रश्न | जयसेन ने इसप्रकार कहा है र में किसी व्यक्तिविशेष की अथवा मेरी सहमति | निर्विकल्पसमाधिबलेन शभाशभोपयोगद्यरहितकाले कुछ भी महत्त्व नहीं रखती है। जिनवाणी से संबंधित | कदाचिद्वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगयुक्ताः कदाचित्पुनर्मोप्रश्नों के उत्तर आगम से निर्णय करना ही उचित होता| हद्वेषाशुभरागरहितकाले सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगयुक्ताः है। आपकी जिज्ञासा का समाधान आचार्य जयसेन के | सन्तो भव्यलोकं निस्तारयन्ति । अनुसार इस प्रकार है अर्थ- जो मुनि निर्विकल्प समाधि के बल से जब १. प्रवचनसागर गाथा-९ की टीका में आचार्य | शुभ और अशुभ दोनों उपयोगों से रहित हो जाते हैं, तब जयसेन, शुद्धोपयोग के गुणस्थान के संबंध में इस प्रकार | वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग के धारी होते हैं। कदाचित् लिखते हैं- मिथ्यात्वसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येना- | मोह द्वेष व अशुभ राग से शून्य रहकर सरागचारित्रमय शुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयत- | शुभोपयोग में वर्तन करते हुए भव्य लोगों को तारते हैं। गुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणक- . भावार्थ- उपर्युक्त टीका में आचार्य जयसेन महाराज षायांतगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं ने शुद्धोपयोग का लक्षण वीतरागचारित्ररूप किया है, सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः। जिसका तात्पर्य स्पष्ट है कि वीतरागचारित्र से रहित होते अर्थ- मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन | हुए गृहस्थों के शुद्धोपयोग नहीं होता। गुणस्थानों में तारतम्य से घटता हुआ अशुभोपयोग है। इसके उपर्युक्त तीनों प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि प्रवचनसार बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयम ऐसे ग्रन्थ में आचार्य जयसेन महाराज की टीका के अनुसार तीन गुणस्थानों में बढ़ता हुआ शुभोपयोग है। उसके बाद | पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों के शुभोपयोग ही होता है, अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में बढ़ता शुद्धोपयोग होता ही नहीं है। हुआ शुद्धोपयोग है। उसके बाद सयोगकेवली एवं अयोग अब हम यह दिखाना चाहेंगे कि वीरसागर जी की केवली इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है, ऐसा डायरी में जो प्रसंग दिया गया है, उसे कितना तोड़ा-मरोड़ा भाव है। गया है! साधर्मी भाइयों से अनुरोध है कि इस प्रसंग को भावार्थ- उपर्युक्त टीका के अनुसार श्रावक अर्थात् | मन लगाकर पढ़ें, ताकि उनको यह विदित हो जाये कि पंचमगुणस्थानवर्ती देशसंयत के शुभोपयोग कहा है। | गृहस्थों के चतुर्थ या पंचम गुणस्थान में शुद्धोपयोग की २. प्रवचनसार गाथा १८१ की टीका में आचार्य | सिद्धि के लिए आचार्यों की टीकाओं को बदलकर तथा जयसेन. महाराज लिखते हैं- मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्र- अपने आशय के अनुरूप बनाकर किस तरह साधर्मी भाइयों गुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभपरिणामो भवतीति पूर्वं भणित- | को बहकाया जा रहा है। 'धर्ममंगल' में लिखा हैंमस्ति, अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतसंज्ञगुणस्थानत्रये तारतम्येन | परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता, परं किन्तु ये प्रचुरेण-शुभोपशुभपरिणामश्च भणितः, अप्रमत्तादिक्षीणकषायांतगुणस्थानेषु | योगेन (पत्रिका में इस स्थान पर उभोपयोगेन लिखा है। तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि भणितः।। | परन्तु श्री लीलावती जी ने फोन पर बताया कि यह छपाई अर्थ- मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन | की भूल है। यहाँ शुभोपयोगेन होना चाहिए।) वर्तन्ते ते गुणस्थानों में घटता हुआ अशुभ परिणाम होता है, ऐसा | यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि पहले कहा जा चुका है। अविरतसम्यक्त्व, देशविरत तथा | शुद्धोपयोगिन एव भण्यन्ते। 26 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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