Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 31
________________ ग्रन्थसमीक्षा 'समाधितन्त्र आर्हतभाष्य" : सन्तशिरोमणि प०पू० आ० विद्यासागर जी महाराज के सुनामधन्य प्रिय शिष्य प०पू० मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज द्वारा प्रणीत समाधितन्त्र आर्हत भाष्य के पारायण का सुअवसर प्राप्त हुआ । उ० प्र० के पूर्व जिला मैनपुरी के अन्तर्गत उदय को प्राप्त हुए चारित्र की परमेष्ठिस्वरूप मूर्ति, संस्कृत, प्राकृत, अँग्रेजी भाषाओं के अधिकारी, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त के निष्णात मनीषी, अल्प वय में ही संस्कृत भाषा में टीकाओं के प्रणयन स्वरूप विलक्षण प्रतिभा के धनी मुनिश्री ने समाधितन्त्र के हार्द को खोलकर ज्ञानपिपासुओं के लिए सुखद, सहज, सरल ज्ञानोपादान रूप भोज्य को मानों थाली में ही परोस कर बड़ा उपकार किया है। सामान्य दृष्टि से ही अवलोकन करने पर, जो प्रतिभास हुआ, तदनुसार इस महनीय गरिमामय ग्रन्थ की कतिपय विशेषताओं को निम्न बिन्दुओं द्वारा प्रकट करना समीचीन होगा। दृष्टव्य है १. यह भाष्य अध्यात्म की भाषा में नयों की समायोजनापूर्वक विशद व्याख्यान है, जो पूर्व में रचित आ० प्रभाचन्द्र जी की टीका से विशेषता रखता है। इससे एकान्त निश्चयाभास के दृष्टिविष से पू० मुनिश्री ने पाठकों को निश्चयप्रधान समाधिशतक के दुरुपयोग से सावधान किया है। वैसे मूलग्रन्थ में भी निश्चय के साथ व्यवहार के दृष्टिकोण को पूज्यपाद स्वामी ने प्रस्तुत किया ही है। उदाहरणार्थ कारिका संख्या ८३ और ८४ द्रष्टव्य हैं। 'अपुण्यमव्रतैः पुण्यं अव्रतानि परित्यज्य --- परमपदमात्मनः । आर्हतभाष्य में एतद्विषयक अच्छा खुलासा है इसी प्रकार से नय सापेक्षता को लिए विवेचन है। " 44 --- २. अन्वयार्थ के साथ ही शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ आगमार्थ और भावार्थ सभी पद्धतियों के द्वारा अर्थ प्रकट कर पू० मुनिश्री ने अपनी विशाल ज्ञानदृष्टि का परिचय दिया है। आगमानुकूल विवेचन है। ३. प्रस्तुत भाष्य शिक्षा एवं दीक्षा गुरु प० पू० • आ० विद्यासागर जी महाराज की व्याख्यान शैली का अनुसरण करता है। अध्यात्म के हार्द को सिद्धान्त की सापेक्षता का प्रतीक बनकर खोलता है । Jain Education International एक प्रशस्त ज्ञानज्योति शिवचरनलाल जैन ४. भाषा और शैली को सूक्ष्मता से दृष्टिगत करने पर ज्ञात होता है कि इसमें पूर्व परम्परा के विशिष्ट टीकाकार आचार्यों की शैलियों के एक साथ दर्शन होते हैं। इससे व्याकरण और लक्षण की दृष्टि से आ० पूज्यपाद, गरिष्ठ आध्यात्मिक विद्वता पूर्ण विवेचन के अभिप्राय से आचार्य अमृतचन्द्र सूरि टीका के एवं ग्रन्थकार के हार्द को खुलासा करने के अभिप्राय से व नययोजना के प्रयोजन से आचार्य जयसेन और ब्रह्मदेव की सहज ही स्मृति हो जाती है। अनेक गुणों से युक्त यह तात्पर्यवृत्तिरूप में सिद्ध होती है टीका को पढ़कर मस्तक । श्रद्धा से मुनिश्री के आगे झुक जाता है। " ४. पू० मुनिश्री संस्कृत, प्राकृत के अभ्यासी विद्वान हैं, उनके विषय प्रतिपादन में शब्दों का चयन स्वाभाविक सहज रूप में हुआ है। यह सरल, सुबोध, सुपाच्य, भाष्य सामान्य ज्ञाताओं को भी अध्यात्मज्ञान प्रसार की दिशा में प्रेरित करता है। ६. आर्हतभाष्य में यथास्थान आवश्यक रूप से पर्याप्त संख्या में शास्त्रों के उद्धरण प्रस्तुत व्याख्यान की श्रीवृद्धि करते हैं। ८३ की बहुल संख्या समाधितन्त्र को बहुआयामी सिद्ध करती है। ७. स्वोपज्ञ पीठिका श्लोक एवं प्रस्तावना, मूलश्लोक व उद्धरण सूची और परिभाषिक शब्दकोष सन्दर्भ एवं शोधकार्य हेतु आवश्यक रूप से दिये हैं, इससे प्रस्तुत भाष्य का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। उपर्युक्त के अतिरिक्त भी अनेकों गुणों को अपने अन्तस् में लिए हुए भाष्य महत्त्वपूर्ण कृति है। संस्कृत भाषा में टीका एक अत्यन्त ज्ञान एवं श्रमसाध्य कार्य है इसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। पाठकों हेतु यहाँ कतिपय पंक्तियाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा । "तानि व्रतान्यपि चात्मनः परमं पदं यथाख्यातचारित्रमशेषहिंसादिनिवृत्तिलक्षणं परमोदासीनतारूपवीतरागनिर्विकल्पसमाधिगम्यं संप्राप्य त्यजेत् । तत्र तु स्वयमेव व्रतं त्यक्तं भवति त्यजनक्रियायां पुरुषार्थानपेक्षत्वात् । अतो न व्रतं त्यक्तुं पौरुषं क्रियते। न च प्राक् व्रतं परित्यज्य योगिनः परमपदस्योपलम्भस्तत्कारणाभावात् । तेनावगम्यते न यावन्तातयीक भूमिं शुद्धोपयोगा'नवम्बर 2009 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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