Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ होते हैं, ऐसा कोई आगम प्रमाण है? समाधान- श्री राजवार्तिक / अध्याय ९ / ४६ के वार्तिक नं० ९ में इस प्रकार कहा हैं- सम्यग्दर्शनं निर्ग्रन्थरूपं च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात् सर्वेषु हि पुलाकादिषु निर्ग्रन्थशब्दो युक्त: । अर्थ भूषा, वेश और आयुध से रहित निर्ग्रन्थ रूप और शुद्ध सम्यग्दर्शन के कारण पुलाक आदि सभी मुनियों में निग्रन्थता समान है अर्थात् सभी सम्यग्दृष्टि हैं और भूषा वेश, आयुध से रहित हैं अतः इन सबके लिए निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग उचित है । राजवार्तिक ९ / ४६ के ११वें वार्तिक में इस प्रकार कहा गया है- यदि रूपं प्रमाणमन्यस्मिन्नपि सरूपे निर्ग्रन्थ व्यपदेशः प्राप्नोतीति तन्न, कि कारणम् ? दृष्ट्यभावात्। दृष्टया सह यत्र रूपं तत्र निर्ग्रन्थव्यपदेशः न रूपमात्र इति । अर्थ- प्रश्न यदि भग्नव्रत में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग होता है, वस्त्रादि नहीं होने से, तब तो किसी भी नग्न मियादृष्टि में भी निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग करना चाहिए ? उत्तर- जिस किसी नग्न में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता है। जिनमें सम्यग्दर्शन सहित निग्रंथपना है, वही निर्ग्रन्थ है। केवल नग्न रूप मात्र ही निर्ग्रन्थ नहीं है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों के जो पुलाक, बकुश आदि पाँच भेद हैं, वे सभी सम्यग्दृष्टि भावलिंगी होते हैं। प्रश्नकर्त्ता लोकेश जैन, दमोह। जिज्ञासा- हमारे यहाँ कुण्डलपुर (बड़े बाबा ) में जो भी आर्यिका संघ आते हैं, उनको समर्पित किए गए श्री फलों को कमेटी वाले लोग अपने ही पास रख लेते हैं और बार- बार उन्हीं श्री फलों को समर्पित कराते है । क्या ऐसे श्रीफल निर्माल्य नहीं कहे जाते ? क्या ऐसा करना उचित है। की सम्पत्ति हो जाती है। मैंने इस संबंध में मुनिमहाराजों से भी चर्चा की तथा आर्यिकासंघ से भी पूछा। सबका यही कथन है कि इसप्रकार समर्पित श्रीफल, चाहे वे माताजी के समक्ष अर्घ आदि बोलकर न चढ़ाए गए हों, फिर भी, समाधान आर्यिका माताओं के समक्ष यदि किसी व्यक्ति द्वारा कोई श्रीफल समर्पित किया जाता है या कराया जाता है, तो वह श्रीफल निर्माल्य हो जाता है अर्थात् उसको दोबारा समर्पित नहीं कराया जा सकता है। वह कर्मचारियों है कि ये तीनों पृथक् पृथक् हैं, एक नहीं। 28 नवम्बर 2009 जिनभाषित निर्माल्य की कोटि में ही आते हैं। इनको या तो कर्मचारियों को दे देना चाहिए अथवा इनको बेचकर इसका द्रव्य गौशाला आदि में दे देना चाहिए। परन्तु इन श्री फलों में कमेटी का कोई अधिकार नहीं रह जाता है है तथा ये श्रीफल दुबारा समर्पित करने योग्य कभी नहीं रहते इनको पुनः पुनः समर्पित कराना कदापि उचित नहीं है। 4 " जिज्ञासा भगवान के गर्भ में आने से पूर्व तथा बाद में १५ माह तक रत्नवर्षा होती है वे रत्न असली होते हैं, फिर आजकल दिखाई क्यों नहीं पड़ते ? 1 समाधान आपके प्रश्न का उत्तर किसी भी ग्रन्थ में मेरे देखने में नहीं आया। अतः जब मैंने यह प्रश्न पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज से किया, तो उन्होंने कहा कि कालपरिवर्तन एवं पंचमकाल के जीवों के पुण्य का अभाव होने के कारण ये रत्न अपने वास्तविक स्वरूप को छोड़ देते हैं, अर्थात् रत्नरूप में नहीं रहते। और इसीलिए भगवान महावीर के समय करोड़ों रत्न १५ माह तक बरसते रहे, फिर भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते हैं । जिज्ञासा निदानशल्य, निदान आर्तध्यान तथा निदानबंध में क्या अन्तर है? समाधान- इन तीनों का स्वरूप इस प्रकार है १. सर्वार्थसिद्धि ७/३७ की टीका में इस प्रकार कहा गया है- "भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानम् ।" अर्थ- भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है वह निदान है। अर्थात इस भव में या पर भव में मुझे सांसारिक भोगों की प्राप्ति कैसे हो, ऐसा निरंतर चिंतन बना रहना निदान नामक आर्तध्यान है । Jain Education International २. सर्वार्थासिद्धि ७/१८ में इसप्रकार कहा गया है"निदानं विषयभोगकाङ्क्षा ।" अर्थ - भोगों की लालसा निदान शल्य है। ३. भोगों की आकांक्षा के अनुसार आगामी पर्याय का बंध हो जाना निदानबंध कहलाता है। सभी प्रतिनारायण आदि निदानबंध करके ही इस पद को प्राप्त करते हैं। उपर्युक्त तीनों परिभाषाओं को देखने से यह स्पष्ट For Private & Personal Use Only १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा - २८२००२, उ० प्र० www.jainelibrary.org

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