Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ ज्ञान, चरित्र, गुण विभावरूप परिणमित होते हैं अतः पूर्व- । नहीं है, अपितु आत्मा का सूक्ष्म या अनित्य स्वभाव उदयरूप धर्म भी उसमें है। आत्मा में अनन्त शक्ति होने | है। पूरब उदै का तात्पर्य कर्मरूप कारण नहीं है, बल्कि से वह स्वभाव-विभाव तथा संसार मोक्ष का कर्ता है। आत्मा का कर्मोदयजनित विभावरूप धर्म है। निहचै नियति इस प्रकार उसमें उद्यम अथवा कर्तृत्व भी विद्यमान है। का वाचक नहीं है, वरन् आत्मा के अभेदरूप निश्चयस्वभाव आत्मा की पर्यायें क्षण-क्षण में बदलती हैं इसलिये वह | का वाचक है। उद्यम पौरुष का पर्यायवाची नहीं सूक्ष्म (क्षणिक) स्वभाववाला है। उसके परिणाम काल | कर्तृत्वधर्म का द्योतक है और काल शब्द कालरूप कारण के समान परिवर्तनशील हैं अतः वह कालरूप भी है। के लिए प्रयुक्त न होकर आत्म-परिणामों की परिवर्तनशीलता इस भाँति आत्मद्रव्य के अनेक अंग हैं। इनमें से एक | के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। को मानना और दूसरे को न मानना कुबुद्धि है और हठ पंडित बनारसीदास जी द्वारा इतना स्पष्ट विवेचन को छोड़कर एक में अनेक का अवलोकन करना सुबुद्धि | किये जाने पर भी विद्वानों ने पदसुभाऊ आदि पदों को है। इसलिये लोक में जो यह कहावत है कि 'खोज कारणवाचक कैसे मान लिया यह आश्चर्य की बात है। करने वाला जीता है और विवाद करने वाला मरता है।' | स्पष्ट है कि पंडित जी का उक्त दोहा पंचकारणसमवाय वह सत्य है। का समर्थक नहीं हैं। (अपूर्ण) यह है उपर्युक्त दोहे का वास्तविक अर्थ। इससे ए / २, शाहपुरा, भोपाल-४६२ ०३९ स्पष्ट होता है कि पदसुभाऊ का अर्थ स्वभावरूप कारण | पापी का अन्न महाभारत-युद्ध में कौरव-सेनापति भीष्म पितामह । "बेटी द्रोपदी! तेरे हास्य का मर्म मैं जानता जब अर्जुन के बाणों से घायल होकर रण-भूमि में | हूँ। तूने सोचा-जब भरे दरबार में दुर्योधन ने साड़ी गिर पड़े तो कुरुक्षेत्र में हाहाकार मच गया। कौरव- | खींची, तब उपदेश देते न बना, वनों में पशु-तुल्य पाण्डव पारस्परिक वैर-भाव भूलकर गाय की तरह | जीवन व्यतीत करने को मजबूर किया गया, तब सान्त्वना डकराते हुए उनके समीप आये। भीष्मपितामह की | का एक शब्द भी मुँह से न निकला, कीचक-द्वारा मृत्यु यद्यपि पाण्डवपक्ष की विजय-सूचक थी, फिर | लात मारे जाने के समाचार भी साम्यभाव से सुन लिये, भी थे तो वे पितामह न? धर्मराज युधिष्ठिर बालकों | रहने योग्य स्थान और क्षुधा-निवृत्ति को भोजन माँगने की भाँति फुप्पा मारकर रोने लगे। अन्तमें धैर्यपूर्वक | पर जब कौरवों ने हमें दतकार दिया. तब उपदेश रुंधे हुए कण्ठ से बोले याद न आया। सत्य और अधिकार की रक्षा के लिए "पितामह ! हम ईर्ष्यालु, दुर्बुद्धि पुत्रों को, इस | पाण्डव युद्ध करने को विवश हुए तो सहयोग देना अन्त समय में, जीवन में उतारा हुआ कुछ ऐसा उपदेश | | तो दूर, उल्टा कौरवों के सेनापति बनकर हमारे रक्त देते जाइये, जिससे हम मनुष्यजीवन की सार्थकता प्राप्त के प्यासे हो उठे, और जब पाण्डवों द्वारा मार खाकर कर सकें।" ज़मीन सँघ रहे हैं, मृत्यु की घड़ियाँ गिन रहे हैं, धर्मराज का वाक्य पूरा होने पर अभी पितामह | तब हमीं को उपदेश देने की लालसा बलवती हो के ओठ पूरी तरह हिल भी न पाये थे कि द्रौपदी | रही है, बेटी! तेरा यह सोचना सत्य है। तू मुझपर के मुख पर एक हास्य रेखा देख सभी विचलित हो | जितना हँसे कम है। परन्तु पुत्री! उस समय मुझ में उठे। कौरवों ने रोषभरे नेत्रों से द्रौपदी को देखा। पाण्डवों | उपदेश देने की क्षमता नहीं थी. पापात्मा कौरवों का ने इस अपमान और ग्लानिको अनुभव करते हुए सोचा- | अन्न खाकर मेरी आत्मा मलीन हो गई थी, दूषित "हमारे सरपै उल्कापात हुआ है और द्रोपदी | रक्त नाडियों में बहने से बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी, किन्तु को हास्य सूझा है।" वह सब अपवित्र रक्त अर्जुन के वाणों ने निकाल पितामह को कौरव-पाण्डवों की मनोव्यथा और | दिया है। अतः आज मुझे सन्मार्ग बताने का साहस दोपदी के हास्य को भाँपने में विलम्ब न लगा। वे | हो सकता है।" मधुर स्वर में बोले 'गहरे पानी पैठ' से साभार 22 नवम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36