Book Title: Jinabhashita 2009 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ वितण्डापूर्वक तत्त्व का प्रस्तुतीकरण करते हैं। व्यामोह को सुरक्षित रखना एक मात्र 'प्रवचन' या 'प्रकाशन' से से आप छूटना नहीं चाहते हैं। नहीं हो सकता, उसके प्रयोग और साधना भी जारी रहेंगे, तो वह सुरक्षित रहेगा। नहीं तो संभव नहीं है। कोई माने या न माने, सुरक्षा और बहुमत तो होना चाहिए । चूँकि आपने यह बात उठा दी, इसलिए जिनलिङ्ग के विषय में कहना पड़ा कि वस्तुस्थिति ऐसी है फिर भी हम अपने आपको संरक्षक मानें, तो यह मान्यता ठीक नहीं है । सन्दर्भग्रन्थ लिखना और 'लॉ' की किताब के माध्यम से संविधानसूत्र के अनुसार 'लॉ' का पालन करना, दोनों में बहुत अन्तर है। परिभाषायें और सन्दर्भ ग्रन्थ बहुत लिखे हुए हैं। लॉ की किताब भी लिखी होगी । लेकिन संविधान बहुत नहीं लिखा जा सकता, संविधान एक रहता है। संविधान को सुरक्षित रखना आवश्यक है। लिखनेवाले तथा बोलनेवाले तो अनेक हो सकते हैं, किन्तु जजमेन्ट देनेवाला तो एक ही होता है। समय हो गया, समय नहीं हुआ हम हो गये, 'कालो न यातो वयमेव याताः' क्योंकि काल के बारे में सुबह से सुन रहे हैं न। पंडित जी ! 'काल ने किया' यह केवल कहने में आता है, लेकिन वस्तुतः वह निष्क्रिय द्रव्य है । काल के कारण सभी लोग सक्रिय हैं, निष्क्रिय नहीं हो सकते। क्योंकि हमारे स्वभाव में सक्रियता है। काल में निष्क्रियता स्वभाव से है। जिसके पास निष्क्रियता है वह दूसरे को सक्रिय नहीं कर सकता। घंटी बजने से हम उठ जाँय, ऐसा नहीं होता । उठने का हमारा अभ्यास है । ओम् शान्ति। * 1 । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के बारे में तो बहुत चर्चा होती है, किन्तु सम्यग्ज्ञान के आठ अंग शायद ही किसी विद्वान् को मुखाग्र हों। विद्वान् लोग - 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय में हैं महाराज जी!' आचार्यश्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में तो हैं। पैंतीस श्रावकाचारों में हैं, लेकिन हम किसी विद्वान् से मौखिक सुनना चाहें, तो शायद ही कोई सुना पायेगा अन्यथा नहीं लेना, क्योंकि सम्यग्ज्ञान के आठ अंग तो बाद में आ जायेंगे। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों की चर्चा करो। युक्ति से नहीं, आगम से मिलान करोगे, तो कोई अपने आप को सम्यग्ज्ञानी नहीं कह सकेगा। सम्यग्दर्शन होना चाहिए, बिना ज्ञान के भी चल सकता है। जब बिना चारित्र के चल रहा है तो बिना ज्ञान के भी चल सकता है। श्रद्धान मजबूत होना चाहिए। यह चल रहा है आजकल इसलिए लिङ्ग को जिस रूप में कहा गया है, उसको उस रूप में आप सुरक्षित नहीं रखोगे तो ध्यान रखना, आर्ष मार्ग आपके हाथों सुरक्षित नहीं है इस सम्बन्ध में कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करनेवाला व्यक्ति भी उसी में शामिल माना जायेगा । मैं वोट सपोर्ट किसी के दे दूँ, यह संभव नहीं। लेकिन दुनिया इस बात को समझ नहीं पा रही है। जिनलिङ्ग आप अपने तर्क दीजिये ओर सन्तोष करिये काम चल रहा है, ग्राहक को विवेक नहीं। वहीं ज्यादा जा रहा है, हमारे यहाँ कोई आ ही नहीं रहा है। इसलिए हम दूसरे की दूकान के सामने खड़े हो जायें और हाथठेला लेकर दूसरे की दूकान के सामने खड़े हो जाते हैं। यह व्यापार है कि खेल है। ठेले का आरक्षण हो जाता है। लेकिन दूकानदार में तो एक्सेप्शन है । यह कहाँ नहीं हो रहा है । होने दीजिये। हाथठेले पर ज्वार बेचने वाले सड़क पर आ जायें तो कोई बात नहीं, किन्तु जौहरी हीरे-मोती ठेले पर लेकर सड़क पर आ जाये, तो मर्यादा नहीं रहेगी। उसको सेम्पल के रूप में बाजार में रखा जा सकता है, लेकिन आज नहीं रखा जा रहा है। गड़बड़ है। बहुमान समाप्त होता जा रहा है। कोई भी विनय नहीं रख रहा है। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के बारे में तो आपने सुना ही होगा । सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों के बारे में शायद ही कोई चर्चा करता होगा। पंडितजी ! क्या कहा, सुन रहे हैं न आप! Jain Education International सन्दर्भ * कालादयोऽनेनैवेच्छाहेतवो विध्वस्ताः, तेषां सर्वकार्य- साधारण कारणत्वाच्च नेच्छाविशेषकारणत्वनियमः । I अर्थ - विशिष्ट समय, विलक्षण क्षेत्र, आकाश आदि पदार्थ इच्छा के सहकारी कारण हो जाते हैं, यह बात भी व्यभिचारदोष हो जाने के कारण ही खण्डित कर दी गयी है क्योंकि वे काल आदिक तो सम्पूर्ण कार्यों के प्रति साधारण कारण हैं । अतः उनके साथ हेय, उपादेय की विशिष्ट इच्छा के कारणपने का नियम नहीं हो सकता है जो सभी कार्यों के साधारण कारण हैं, वे विशिष्ट कार्य के होने में नियामक नहीं हो सकते हैं। त. श्लोकवार्त्तिकालंकारः तत्त्वार्थचिन्तामणिः द्वितीय खण्ड, पु. २५ नवम्बर 2009 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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