Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास जा ठहरा। अतः रत्नाकर कवि का प्रसंग बिल्कुल आगम विरुद्ध है।" १२. भाग १ के पृ. १४१ पर लिखा है कि भरतेश्वर की ९६ हजार रानियाँ हैं । परन्तु इसके बाद भी पृ. २६५ पर ३०० कन्याओं से, पृ. २७१ पर ३२० कन्याओं से पृ. २७२ पर ४०० कन्याओं से तथा पृ. ३३० पर २००० कन्याओं से शादी की चर्चा है। इससे ध्वनित होता है कि भरतेश्वर की ९६ हजार से भी अधिक रानियाँ थीं जो आगमसम्मत नहीं है। १३. भाग २, पृ. ४ पर लिखा है कि बाहुबली मुनिराज के मन में शल्य थी कि यह क्षेत्र चक्रवर्ती का है। मैं इस क्षेत्र में अन्न-पान ग्रहण नहीं करूँगा, इस गर्व के कारण से उनको ध्यान की सिद्धि नहीं हो रही थी जब कि आदिपुराण पर्व ३६ में श्लोक १८६ में स्पष्ट लिखा है कि बाहुबलि के हृदय में यह विचार था कि वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है इन दोनों प्रकरणों में इतना अन्तर क्यों है? १४. भाग २ पृ. ३० पर लिखा है कि जयकुमार और सुलोचना के विवाह के अवसर पर भतेश्वर के पुत्र अर्ककीर्ति और जयकुमार का युद्ध नहीं हुआ। जब कि आदिपुराण पर्व ४४ में अर्ककीर्ति और जयकुमार के बीच घनघोर युद्ध का वर्णन है। १५. भाग २, पृ. ५३ पर लिखा है कि भरत की माँ यशस्वती के नीहार नहीं होता था। जब कि तीर्थंकर की माता के नीहार नहीं होता है, ऐसा आगम में उल्लेख है, चक्रवर्ती की माँ को नीहार नहीं होता हो, ऐसा उचित नहीं। १६. दीक्षा के समय भरतेश्वर की माँ को मुनिराजों ने पिच्छी और आत्मसार नामक पुस्तक दिलवाई, ऐसा वर्णन भाग २, पृ. ५३ पर है जब कि उस अवसर्पिणी के तृतीय काल में ग्रन्थ होने का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता । परिभाषा गलत दी गई है। सबसे सूक्ष्म पुद्गल को परमाणु कहा है और अनन्त परमाणुओं के मिलने से अणु बनता है ऐसा कहा है। यह परिभाषा आगमविरुद्ध है। Jain Education International १९. भाग २, पृ. १५४ पर लिखा है कि अविपाक निर्जरा मुनियों के ही होती है, सबको नहीं यह प्रकरण भी आगमविरुद्ध है क्योंकि अविपाक निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों के होती है। " २०. भाग २, पृ. १५५ पर लिखा है कि "कोईकोई आत्मा पहले घातिया कर्मों का नाश करते हैं और बाद में अघातिया कर्मों का नाश करते हैं और कोई घातिया और अघातिया कर्मों को एक साथ नाश कर मुक्ति को जाते हैं।" 1 २१. भाग २, पृ. १५१ पर प्रकरण दिया है कि कर्म, आत्मा व काल ये तीन पदार्थ अनादि हैं और उनके ही निमित्त से धर्म, अधर्म व आकाश कार्यकारी हुए। इसलिए वे आदि वस्तु हैं। ऐसा भी कोई कहते हैं। यह प्रकरण भी बिल्कुल आगमविरुद्ध है, ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता। । २२. भाग २ पृ. १८१ पर भगवान आदिनाथ ने १०० पुत्रों से कहा "अब अधिक उपदेश की जरूरत नहीं है। अब अपने शरीर के अलंकारों का त्याग कीजिए । राजवेष को छोड़कर तापसी वेष धारण कीजिए। बाद में दीक्षा होने के बाद भगवान् आदिनाथ ने 'आत्मसिद्धिरेवास्तु' इस प्रकार आशीर्वाद भी दिया।" यह सारा वर्णन आगमसम्मत नहीं है। तीर्थंकर केवली इस प्रकार आशीर्वाद या दीक्षा नहीं देते हैं। २३. भाग २ पृ. १७७ पर लिखा है कि जिनेन्द्र भगवान के सिंहासन के चारों ओर हजारों केवली विराजमान थे। यह प्रकरण भी आगमसम्मत नहीं हैं। २४. भाग २ पृ. २१४ पर तीर्थंकर प्रभु के अंतिम संस्कार के समय तीन कुण्डों को तीन शरीर की सूचना देनेवाला बताया है। यह प्रकरण बिल्कुल गलत है। १७. भाग २, पृ. ८३ पर सम्राट भरत द्वारा ७२ जिनमंदिरों का निर्माण एवं उनकी पंचकल्याणक पूजा का उल्लेख है । यह प्रकरण भी आगमसम्मत नहीं है। तृतीय एवं चतुर्थ काल में पंचकल्याणक होने का कोई प्रसंग प्राप्त नहीं होता और न ही ७२ जिनालयों का कोई प्रमाण मिलता है । १८. भाग २, पृ. १४३ पर अणु और परमाणु की भी आगम से मेल नहीं खाता। २५. भाग २ पृ. २१५ पर भगवान आदिनाथ का माघ बदी चतुर्दशी को निर्वाण होने से शिवरात्रि के प्रचलन का सम्बन्ध जोड़ा गया है। यह प्रकरण आगमसम्मत नहीं हैं। २६. भाग २ पू. २१७ पर अष्टापद की किस प्रकार रचना की गई यह प्रकरण लिखा है, जो किसी For Private & Personal Use Only नवम्बर 2009 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org

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