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लिच्छवियों के प्रजातन्त्र में! लेकिन यह कितने आश्चर्य । जथरिया शब्द 'ज्ञात' से अपभ्रंश होकर बना है। इसके की बात है कि महावीर के अनुयायी आज उनकी जन्मभूमि | सिद्ध करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता नहीं, को भूल गए, और वह उसे लिछुवार (मुंगेर जिला) | ज्ञातृ से ज्ञातर फिर जातर, उपरान्त जतरिया, जथरिया। में ले गए। लिछुवार अंग देश में है, लेकिन जैन ग्रन्थों | लेकिन कितने जथरियों और उनसे भी अधिक भूमिके अनुसार महावीर को वैशालिक कहा गया। “विदेह | हारों की इस पर घोर आपत्ति है। वह इसलिए कि आज जच्चे, विदेह सुडमाले" का वचन बतलाता है, कि उनका | के जथरिया भूमिहार होने से जब कि ब्राह्मण होने का जन्म विदेह देश में हुआ था। विदेह और वृजि (वैशालीवाला दाबा करते हैं, वहाँ प्राचीन ज्ञातृ क्षत्रिय थे। उनके ध्यान प्रदेश) आपस में वैसा ही सम्बन्ध रखते थे, जैसा कोसल | में नहीं आता कि ऐसा भी समय था, जब कि आर्यों
और शाक्य। एकबार कौसलराज प्रसेनजित ने बुद्ध से | में ब्राह्मण-क्षत्रिय का भेद न था। एक ही पिता के दो कहा था "भगवान भी कौसलक हैं और मैं भी कौसलक | पुत्रों में एक राष्ट्ररक्षक खड्गहस्त क्षत्रिय होता और दूसरा हँ।" वस्ततः गंगा-गण्डकी (तत्कालीन मही) कोसी और | देवअर्चक सुवाधारी ब्राह्मण । वस्तुतः ईसापूर्व पन्द्रहवीं सदी हिमालय के बीच के सुन्दर उर्बर समतल भूमिका नाम | में कुरुपांचाल की भूमि में ब्राह्मण क्षत्रिय भेद का बीजारोपण विदेह था। हाँ, भाषा की दृष्टि से एक होते हुये भी हुआ। यही दोनों जनपद थे, जिन्होंने सर्व प्रथम राजतन्त्र किन्हीं राजनैतिक कारणों से इस भूमि का वह भाग जो | को स्वीकार किया। प्रजातन्त्रों ने बहुत पीछे तक इन आज मुंगेर और भागलपुर जिलों के गंगा के उत्तरीय | भेदों को स्वीकार नहीं किया, न ब्राह्मणों की प्रधानता अंश के रूप में परिणत हो गए हैं- को अंगुत्तराय | तथा उनके जातिश्रेष्ठ होने को है। ज्ञातृ उसी तरह के (आप-गंगा के उत्तर बाला अंग) कहा जाता था। यही | प्रजातन्त्रीय आर्य थे। आयुधजीवी आर्य होने से उन्हें क्षत्रिय प्रदेश गुप्तकाल में तीर भुक्ति (नदियों के तीर वाली | भी कहा जाने लगा था, किन्तु वे वस्तुतः उन आर्यों भुक्ति= सूबा) कहा जाने लगा, जिसका ही अपभ्रंश आज | का प्रतिनिधित्व करते थे, जिनमें ब्राह्मण-क्षत्रिय का भेद का तिर्हत शब्द है। विदेह की राजधानी मिथला नगरी | न हो पाया था। इसलिए जथरियों को ज्ञात कहे जाने थी। काशी था देश का नाम, किन्तु पीछे उसकी राजधानी | से एक सीढी नीचे उतरनेका भय नहीं होना चाहिए। बराणसी (बराणस, बनारस) का पर्यायवाची बन गया। | फिर प्रजातन्त्रीय भारत में तो वह भय और भी अनावश्यक यही बात विदेह के साथ उलटी तौरसे हुई और वहाँ | है जब कि हमें निश्चित जान पडता है, कि आगे सभी राजधानी मिथिला के नाम ने सारे देश को अपना नाम | की रोटी बेटी एक होने जा रही है। दे दिया। इसी विशाल विदेह भूमिका पश्चिमी भाग था | जथरिया तरुणों में तो कितने स्वीकार करने लगे लिच्छवि गणका बृजि देश, जिसकी राजधानी थी वैशाली।। हैं कि भगवान् महावीर उन्ही के वंश के थे। लेकिन इस प्रकार ज्ञातपुत्र महावीर 'वैशालिक' भी थे 'वेदेहिक' | हमारे जैन भाई तो अब भी इसे मानने के लिए तैयार भी थे।
नहीं हैं, कि वैशाली (बसाढ) ही वह नगरी थी, जिसके भगवान महावीर को ज्ञातृ-पुत्र या ज्ञातृ-सन्तान कहा | उपनगर कुण्डग्राम में वर्द्धमान ने जन्म लिया था, जिन्होंने
में ज्ञातृ का रूप 'नात' बन गया है। मानव दुर्वृत्तियों पर जय प्राप्त कर 'जिन्' बन, अपनी नातिका (ज्ञातका) नाम का एक महा ग्राम वैशाली प्रजातन्त्र | महती वीरता के लिए महावीर नाम पा प्रसिद्ध हए। यह में था। वैशाली (बसाढ) और उसके आसपास अब भी | बड़े आश्चर्य की बात है कि जैनपरम्परा में भगवान् एक प्रभावशाली जाति रहती है, जिसे जथारिया कहते | महावीर के निर्वाणस्थान और जन्मस्थान दोनों को भुला हैं। यह भूमिहार या पछिमा ब्राह्मण जाति की एक शाखा | कर उनकी जगह नये स्थानों को स्वीकार किया। कुण्ड है। जहाँ छपरा, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में भूमिहार | ग्राम को वैशाली और विदेह से हटा कर अंग में (लिछुआर) के लिए ब्राह्मण का प्रयोग आश्चर्य के साथ सुना जाता | और निर्वाण स्थान मल्लों की पावा (जो पडरौना के था, वहाँ दरभंगा, भागलपुर आदि के मैथिल ब्राह्मण भूमिहार | पास पपौर हो सकती है) से हटा कर मगध के आधुनिक ब्राह्मणों को पछिमा ब्राह्मण ही नहीं कहते, बल्कि उनके स्थान पावापुरी में ले गए। साथ रोटी बेटी के सैकडों उदाहरण मिल सकते हैं।। वैशाली के निवासी जागृत हुए हैं। भारतीय प्रजातन्त्र
- नवम्बर 2009 जिनभाषित 15
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