Book Title: Jinabhashita 2009 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ है तो चारित्र मत धारण कर किंतु आत्माज्ञान तो प्राप्त कर ले आत्मज्ञान के प्रकाश में फिर तुझे चारित्र धारण करना दुर्भर नहीं रह जाएगा। इस युग में श्रद्धा का संभालना ही कठिन कार्य है जिसने इसे संभाल लिया उसने धर्म का मार्गक प्राप्त कर लिया। वह मोक्ष गामी बन गया और जिसने इसे नहीं प्राप्त कर पाया वह मुनि होकर भी अधर्मा है संसार मार्गी है। आचार्यों ने कहा है किअपनी प्रज्ञा रूपी छैनी को इस सावधानी से चलाओ कि तुम्हारा चैतन्य भाव जुदा हो जावे और ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म तथा रागादिक भाव कर्म जुदा हो जावें। अपना अंश पर में न जावे और पर का अंश अपने में न आवे, यही परम निपुणता है । जिसमें यह निपुणता आ गई वह मात्र अष्ट- प्रवचनमातृका रूप जघन्य श्रुतज्ञान होने पर भी अन्तर्मुहूर्त बाद केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है और जिसमें पूर्वोक्त निपुणता नहीं आई, वह ग्यारह अंग नौ पूर्व का पाठी होने पर भी केवलज्ञान से बहुत दूर रहता हैं । जैनधर्म में बहुज्ञानी के लिए उतना सम्मान नहीं है, जितना कि आत्मज्ञानी के लिए है । इसीलिए कुन्दकुन्द महाराज ने कहा है कि जिसने आत्मा को जान लिया उसने सबको जान लिया और जिसने आत्मा तट पर मत कर शोर जलधि में डूब उतर कर मोती ला । भाग्यवाद की मन समझाने मत मंदिर से पोथी ला छोड़ सहारों हासिल हुआ यहाँ कब किसको बिना किए कुछ बतला दे । उठा कर्म की ध्वजा हाथ में चल आलस को जतला दे । Jain Education International 10 नवम्बर 2009 जिनभाषित को पीछे तू चल पड़ पथ पर एकाकी 1 को नहीं जाना उसने कुछ भी नहीं जाना। लेख का सार यह है आत्मा अनन्त आलोक का पुज्ज और अक्षय सुख का भण्डार है। वह निर्मोह है, उसमें न राग है न द्वेष, वह तो आकाश की तरह निर्लेप और स्फटिक की तरह स्वच्छ है । उपाधि के सन्निधान से स्फटिक की स्वच्छता रक्त, पीत आदि रूप परिणत अवश्य हो जाती है, पर उसे उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार मोह के सन्निधान से संसारी आत्मा की रागद्वेष रूप परिणति अवश्य हो रही है पर वह उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता। स्वभाव का भी कभी नाश होता है? तूं अपने स्वरूप को भूल बाह्य पदार्थों को सुख-दुख का कारण मानकर व्यर्थ ही दुखी हो रहा है। जड़ की सेवा करते-करते अनन्त काल व्यतीत हो चुका पर आज तक वह तेरा नहीं हुआ और न ही तुझे उससे कुछ सुख प्राप्त हो सका। तब क्यों उसके पीछे पड़ रहा है सुन, समझ और अपने आपको पहचान । उठा कर्म की ध्वजा हाथ में साहित्याचार्य डॉ० पन्नालाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ ( ५ / २५ -५ / २६ ) से साभार तू चाहे तो ला सकता है धरती पर नभ की झाँकी। सुविधाएँ दौड़ आएँगी। मनोज जैन मधुर, पहले खुशियाँ छोटी ला । खुली चुनौती दे अम्बर को तू मन में निज साहस से । छू कर दुनिया सोना कर दे तू दृढ़ता के पारस से For Private & Personal Use Only कर सपने साकार नयन में विजयश्री की चोटी ला । भोपाल www.jainelibrary.org

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