Book Title: Jinabhashita 2008 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय निर्माल्य और आशिका (शेषा) 'जिनभाषित' मई २००८ के सम्पादकीय में मैंने ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी पुष्प के ये विचार उनके पुत्र ब्र० जयकुमार जी 'निशान्त' के वचनों के माध्यम से उद्धृत किये थे कि 'देवपूजा में आवाहन आदि करते समय ठौने पर जो पुष्प चढ़ाये जाते हैं, उनमें जिनदेव की स्थापन नहीं की जाती, अपितु वे आवाहन आदि के संकल्प के प्रतीक होते हैं।' इससे देवपूजा में आवाहन स्थापना आदि के लिए प्रयुक्त होनेवाले ठौने निष्प्रयोजन सिद्ध होते हैं, क्योंकि संकल्पपुष्पों का क्षेपण उस थाली में भी किया जा सकता है, जिसमें जिनदेव को लक्ष्यकर अष्टद्रव्य समर्पित किये जाते हैं। अतः पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' ठौने की परम्परा के निष्प्रयोजन सिद्ध होने के भय से कहते हैं कि उक्त संकल्पपुष्प ठौने पर ही चढ़ाये जाने चाहिए, क्योंकि जिस थाली में पूजाद्रव्य समर्पित किये जाते हैं, उस थाली में संकल्पपुष्पों का क्षेपण करने से पूजाद्रव्य के समान संकल्प भी निर्माल्य हो जायेगा। 'पुष्प' जी के विचारों को 'निशान्त' जी ने निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है "पूजन में अष्ट द्रव्यों के साथ ठौने का होना स्वयं सिद्ध है। --- यदि संकल्प के पुष्प, द्रव्य चढ़ाने की थाली में क्षेपण करेंगे, तो हमारा संकल्प निर्माल्य हो जावेगा, अर्थात् खण्डित पूजन के आरम्भ में आवाहन, स्थापना, सान्निधीकरण और समाप्ति पर पूजन क्रिया का विसर्जन (समापन) पुष्पों के द्वारा ठौने पर ही किया जाता है।" (पुष्पाञ्जलि / खण्ड २/पृ.८७)। यह मत यक्तिसंगत नहीं है. क्योंकि जैसे द्रव्यार्पण-थाली में पजाद्रव्य समर्पित करने से पजाद्रव्य ही निर्माल्य होता है, पूजा नहीं, वैसे ही संकल्पपुष्पों का द्रव्यार्पण-थाली में क्षेपण करने से संकल्पपुष्प ही निर्माल्य होंगे, संकल्प नहीं। और संकल्पपुष्प चाहे ठौने पर क्षेपण किये जायँ, चाहे द्रव्यार्पण-थाली में, दोनों जगह वे निर्माल्य हो जाते हैं, क्योंकि न तो उनका संकल्पपुष्प के रूप में दूसरी बार उपयोग हो सकता है, न ही पूजाद्रव्य के रूप में। अर्थात् वे उच्छिष्ट हो जाते हैं। निर्माल्य द्रव्य का यही लक्षण है। इसलिए संकल्पपुष्पों का पूजा की थाली में क्षेपण करने से संकल्प या संकल्पपुष्पों के निर्माल्य हो जाने का तर्क समीचीन नहीं है, अतः वह ठौने को सप्रयोजन सिद्ध करने में असमर्थ है। 'निर्माल्य' शब्द 'निर्मल' और 'माल्य' इन दो शब्दों से निष्पन्न है। 'निर्मल' शब्द में 'ण्यत्' प्रत्यय लगने पर निर्माल्य शब्द बनता है (आप्टे-संस्कृत-हिन्दी कोश), जिससे मलरहितता या स्वच्छता अर्थ प्रकट होता है। तथा 'माला' शब्द के वाचक 'माल्य' शब्द में 'निर्' उपसर्ग लगाने पर दूसरा 'निर्माल्य' शब्द सिद्ध होता है, जिसका अर्थ है- 'देवता पर समर्पित करने के पश्चात् मुाये हुए फूल।' (आप्टे-संस्कृतहिन्दी कोश)। इस प्रकार दूसरा 'निर्माल्य' शब्द मुख्यतः देवता को अर्पित माल्य (पुष्पमाला) शब्द से सिद्ध हुआ है, पश्चात् लक्षणाशक्ति से वह देवता को चढ़ाये गये सभी द्रव्यों का लक्षक बन गया। निर्माल्य : देवोच्छिष्ट, देवभुक्त भारतीय धर्मों में देवता को समर्पित पुष्पादि द्रव्य देवोच्छिष्ट या देवभुक्त माने जाते हैं, इसलिए वे निर्माल्य कहलाते हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में 'निर्माल्य' शब्द का अर्थ इस प्रकार बतलाया गया है "णिम्मल्लं देवोच्छिष्टे देवार्चाद्रव्ये"= देव के द्वारा उच्छिष्ट (जूठा किया गया = भुक्तावशेष) देवपूजाद्रव्य निर्माल्य कहलाता है। (अभिधानराजेन्द्रकोष / भा.४ / पृ. २०८४)। "भोगविणटुं दव्वं णिम्मल्लं विंति गीयत्थाः।" (अभिधानराजेन्द्रकोष/भा.४ / पृ.२०८४) = भोग से उच्छिष्ट द्रव्य को ज्ञानीजन निर्माल्य कहते हैं। 2 सितम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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