Book Title: Jinabhashita 2008 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ द्वारा (किमिच्छक दान देकर) जगत की आशा को पूरित करके जो अरहंत भगवान् की पूजा चक्रवर्तियों के द्वारा की जाती वह कल्पद्रुम पूजा कही जाती है। भावार्थ- चक्रवर्ती के छहखण्ड की विजय प्राप्त करने के बाद, उनके साम्राज्यपद का अभिषेक होता है। उस समय वे अपने अधीनस्थ सभी राजाओं तथा प्रजा से " आप क्या चाहते हैं, ऐसा प्रश्न करते हैं । वे लोग जो-जो माँगते हैं, उनको वह सब देकर उनकी इच्छायें पूर्ण की जाती हैं, अर्थात् उनको किमिच्छक दान देकर संतुष्ट किया जाता हैं।" इस प्रकार संतुष्ट करके, जो पूजा चक्रवर्ती के द्वारा की जाती है, उसे कल्पद्रुम कहा जाता है। प्रश्नकर्त्ता - कु. मनीषा पैठ बड़गाँव । | जिज्ञासा - जिसने नीचे के नरकों की अधिक आयु बाँध ली हो, तो क्या वह अपने वेदकसम्यक्त्व द्वारा उसे घटाकर प्रथम नरक की कर सकता है? समाधान- इस प्रश्न का उत्तर किसी ग्रंथ में स्पष्ट रूप से पढ़ने में नहीं आया, न कभी पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्रीमुख से ही सुना गया। फिर भी निम्न प्रमाण द्रष्टव्य है हरिवंश पुराण सर्ग 2 श्लोक 136-138 में इस कहा है श्रेणिकेन तु यत्पूर्वं बह्वारंभपरिग्रहात् । परस्थितिकमारब्धं नरकायुस्तमस्तमे ॥ 136॥ तत्तु क्षायिकसम्यक्त्वात् स्वस्थितिं प्रथमक्षितौ । प्रापद्वर्षसहस्त्राणामशीतिं चतुरुत्तराम् ॥ 137 ॥ त्रयस्त्रिंशत् समुद्राः क्व क्व चेयं मध्यमा स्थितिः । अहो क्षायिकसम्यक्त्वप्रभावोऽयमनुत्तरः ॥ 138 ॥ अर्थ- राजा श्रेणिक ने पहले बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण तमस्तमः नामक सातवें नरक की, जो उत्कृष्ट स्थिति बाँध रखी थी, उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव से प्रथम पृथ्वी संबंधी चौरासी हजार वर्ष की मध्यम स्थितिरूप कर दिया। (136-137 ) । गौतम स्वामी कहते हैं कि कहाँ तो तेतीस सागर और कहाँ यह जघन्य स्थिति ? अहो ! क्षायिक सम्यग्दर्शन का यह अद्भुत लोकोत्तर माहात्म्य है। 138 प्रकार 2. पं रतनचन्द्र जी मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व ( नया प्रकाशन) पृष्ठ 485 पर ऐसे ही एक प्रश्न का उत्तर पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार ने इस प्रकार दिया है 26 सितम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International " मिथ्यादृष्टि तापसी सप्तम पृथ्वी की आयु को छेदकर प्रथम पृथ्वी की आयु प्रमाण नहीं कर सकता । क्षायिक सम्यग्दृष्टि या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि ही सप्तम पृथ्वी की आयु का छेदन कर उसे प्रथम पृथ्वी की आयु प्रमाण कर सकता है। श्री कृष्ण जी तीसरी पृथ्वी की आयु को छेदकर प्रथम पृथ्वी की नहीं कर सके, यद्यपि उनको (बाद में) वेदक सम्यक्त्व प्राप्त हो गया था और तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी प्रारंभ हो गया था। उपर्युक्त प्रमाणानुसार नरकस्थिति के छेद में क्षायिक अथवा कृतकृत्यवेदक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को ही कारण मानना उचित प्रतीत होता है। जिज्ञासा- देव तथा नारकियों के आयुकर्म की उदीरणा प्रति समय होती है, तो उनका अकालमरण क्यों नहीं हो सकता? समाधान- सामान्य नियम तो यह है कि जिस कर्म का जहाँ उदय होता है, वहाँ उसकी उदीरणा भी होती ही है । कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा है उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो । मोत्तूण तिणि ठाणं पमत्त जोगी अजोगी य॥ 278 ॥ अर्थ - उदय और उदीरणा रूप प्रकृतियों में स्वामीपने की अपेक्षा कुछ विशेषता नहीं है, किन्तु प्रमत्त, सयोग-केवली तथा अयोगकेवली इन गुणस्थानों को छोड़ देना, क्योंकि इन तीनों गुणस्थानों में ही विशेषता है, शेष गुणस्थानों में समानता ही है उदीरणा चार प्रकार की है- प्रकृति- अदीरणा, स्थिति - उदीरणा, अनुभाग- उदीरणा, तथा प्रदेश - उदीरणा । (देखें श्री धवला 15 / 43 ) उपर्युक्त सामान्य नियम के अनुसार नरकायु तथा देवायु के उदय के साथ उदीरणा भी नियम से होती है। परन्तु उनका अकालमरण नहीं हो सकता, क्योंकि इन उपपाद जन्मवाले जीवों के, प्रदेश - उदीरणा होती है, पर स्थिति - उदीरणा नहीं होती। अकालमरण तो स्थितिउदीरणा होने पर होता है। अतः केवल प्रदेश - उदीरणा होने से आयु की स्थिति नहीं घटती, मात्र प्रदेशों की ही उदीरणा होती है । इस स्थिति में अकालमरण संभव नहीं होता । प्रश्नकर्त्ता - पं. जीवन्धर कुमार शास्त्री देहली। जिज्ञासा- क्या मुनि या आर्यिका, पंखा, कूलर, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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