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यज्ञोपवीत
यज्ञोपवीत एक चर्चित विषय है । यह कहा जाता है कि यज्ञोपवीत श्रावक का अनिवार्य चिह्न है और इस चिह्न को धारण किए बिना श्रावक को दान पूजा का अधिकार नहीं है। इस विषय पर विचार करने के लिए हमें पहले यह जानना चाहिए कि यज्ञोपवीत का विधान किन-किन ग्रंथों में पाया जाता है और किस रूप में पाया जाता है। खोज के फलस्वरूप हम इस परिणाम पर पहुँचते है कि उपलब्ध 35 श्रावकाचारों में से आदिपुराण के अतिरिक्त और किसी भी श्रावकाचार ग्रंथ में यज्ञोपवीत का कोई वर्णन नहीं है । सागारधर्मामृत में अवश्य एक स्थान पर अध्याय 2 श्लोक 19 में सामान्य वर्णन किया गया है कि पूर्वोक्त अनंत संसार के कारण- भूत मद्यपानादिक पापों को छोड़कर सम्यक्त्व के द्वारा विशुद्धबुद्धिवाला, और किया गया है यज्ञोपवीतसंस्कार जिसका, ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जैनधर्म के सुनने का अधिकारी होता है। इसी ग्रंथ में आगे श्लोक 22 में लिखा है 'वेशभूषा, आचार-विचार और शरीर की शुद्धि से सहित शूद्र भी जैनधर्म सुनने का अधिकारी होता है। यह निर्विवाद है कि शूद्र यज्ञोपवीत का अधिकारी नहीं है। अतः बिना यज्ञोपवीत के शूद्र भी जैनधर्म श्रवण करने का अधिकारी हो सकता है। ऐसे सागार - धर्मामृत में परस्पर विरोधी कथन पाए जाने से उक्त श्लोक 19 में लिखी गई बात मान्य नहीं की जा सकती है।
अब केवल आदिपुराण में पाये जानेवाले यज्ञोपवीत के कथन पर नीचे विचार किया जा रहा है। आचार्य जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण के भाग 2 पर्व 38 पृष्ठ 240 पर लिखा है कि अब मैं द्विजों की उत्पत्ति कहता हूँ । चक्रवर्ती दिग्विजय पूर्ण करने पर सुखपूर्वक भोग भोगते हुए जीवनयापन कर रहे थे। एक दिन उनके मन में यह विचार आया कि दूसरे के उपकार में मेरी संपदा का उपयोग किस प्रकार हो सकता है । मैं श्री जिनेन्द्र भगवान् का महामहयज्ञ कर धनवितरण करता हुआ सबको संतुष्ट करूँ । सदा निःस्पृह रहनेवाले मुनि, तो हमसे कुछ
ते नहीं । परंतु ऐसे गृहस्थ कौन हैं, जो धनधान्य आदि से पूजा करने योग्य हैं। सब राजाओं को अपने मित्रों सहित सत्कार योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से बुलाया। चक्रवर्ती ने अपने महल के आँगन में हरेहरे अंकुर, पुष्प और फल भरवा दिए। आनेवाले लोगों 20 सितम्बर 2008 जिनभाषित
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पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया में जो अव्रती थे, वे बिना किसी सोच विचार के हरित घास, पुष्प आदि के ऊपर से आ गए। किन्तु जो व्रती थे, वे नहीं आए। पाप से डरनेवाले हरे अंकुर व पुष्पों से भरे हुए राजा के आंगन को उल्लंघन किए बिना ही वापिस लौटने लगे। जब चक्रवर्ती ने बहुत आग्रह किया, तो वे दूसरे प्रासुक मार्ग से अंदर आए। ऐसे व्रतों में दृढ़ रहनेवाले उन व्रतियों की चक्रवर्ती ने प्रशंसा की और पद्मनाम की निधि से प्राप्त एक से लेकर ग्यारह तक की संख्यावाले ब्रह्मसूत्र ( व्रत सूत्र) से उन सबके चिह्न किए। प्रतिमाओं के भेद के अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किए, उन सबका भरत जी ने सत्कार किया ।
आगे आचार्य श्री जिनसेन स्वामी जी ने पर्व 38 में लिखा है कि चक्रवर्ती भरत जी ने व्रतों से संस्कारित द्विजों के लिए तीन प्रकार की क्रियाओं का विधान किया । गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया एवं कर्त्रन्वय क्रिया । गर्भान्वय क्रियाओं के 53 भेद बताए। ( पर्व 38 श्लोक 51-52 ) । गर्भ से आठवें वर्ष में बालक की चौदहवीं उपनीति क्रिया (यज्ञोपवीत धारण क्रिया) की जाती है। पश्चात् उसकी केशमुंडन, व्रतबंधन तथा मौजीबंधन क्रियाएँ भी की जाती है। व्रतचर्या नामक क्रिया में तीन लर की मूंज की रस्सी बाँधने से कमर का चिह्न होता है, वह मौजीबंधन रत्नत्रय की विशुद्धि का चिन्ह है । धुली हुई सफेद धोती उसकी जाँघ का चिन्ह है। उसके वक्षस्थल का चिन्ह सात लर का गूँथा हुआ यज्ञोपवीत है। उसके सिर का चिन्ह स्वच्छ उत्कृष्ट मुंडन है । सिर मुंडन से मन वचन पवित्र होते हैं। (पृ. 249 श्लोक 113)। केवल यज्ञोपवीत ही नहीं, आचार्य जिनसेन स्वामी ने अन्य चिन्हों का भी विधान किया है।
आगे आदि पुराण भाग 2 में पर्व 40, पृष्ठ 316 पर लिखा है
इत्थं स धर्मविजयी भरतादिराजो धर्मक्रियासु कृतधीर्नृपलोकसाक्षि ॥ तान् सुव्रतान द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ॥ 221॥ इति भरतनरेन्द्रात् प्राप्तसत्कारयोगा व्रतपरिचयचारूदारवृत्ताः श्रुतायाः । जिनवृषभमतानुव्रज्यया पूज्यमानाः जगति बहुमतास्ते ब्राह्मणाः ख्यातिमीयुः ॥ 222 ॥
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