Book Title: Jinabhashita 2008 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ जीवन जीने की कला सिखाता है पर्वराज पर्युषण विधानाचार्य ब्र. त्रिलोक जैन सुख दुख की धूप-छाँव में जीवन की खुशहाली । है धर्म। जिसे आचार्य अहिंसा, दया, करुणा, प्रेम, वात्सल्य के लिय मानव प्रयासरत है और वह चाहता है कि | कहते हैं। इन्हीं गणों को प्राप्त करने आचार्य भगवंत दुनिया का सारा सुख उसका हो, दुनियाँ के सारे सुंदर करुणा करके पर्वराज पर्यषण के निमित्त दस धर्मों के फूल उसके आंगन में खिलें, सूरज का प्रकाश, तो मिले | रूप में व्यक्त करते हैं। अत: मानवकल्याण के दस सोपान पर धूप नहीं। कुल मिलाकर मानव अच्छा मित्र, श्रेष्ठ | हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आज्ञाकारी भाई, प्रेम करनेवाले माँ-बाप, आज्ञाकारी पत्नि | आकिञ्चन एवं ब्रह्मचर्य। सबसे पहले पर्व की उपादेयता सहयोग करनेवाला पड़ोसी, सुख सुविधापूर्ण नगर आदि | पर विचार करें कि पर्व क्यों आते हैं? मानवजीवन में सब कुछ अच्छा चाहता है। पर खेद है, उसे आज कुछ | इनका क्या महत्त्व है? पर्व नगर रक्षक की तरह हैं, भी अच्छा नहीं मिल रहा। प्रेम आज रूठ गया है, घृणा | जो हमारी आत्मा को विषय-कषाय रूपी चोरों से सावधान के कांटे पग-पग पर बिछे हैं, भाई-भाई में टकराव है, | कर हमें आत्म-विकास के लिये जगाते हैं। हम प्रतिदिन पड़ोसियों में कलह, आत्मीय संबंधों में बिखराव, सामाजिक | अपने घर में झाडू लगाते हैं, पर रविवार के दिन माताक्षेत्र में भी टकराव, जहाँ देखों वहाँ असंतोष का साम्राज्य। बहिनें विशेष सफाई अभियान करती हैं, जिसमें एककारण मानव आज मानवीय मूल्यों को ताक पर रख- | एक चीज को साफ किया जाता है। ठीक इसी प्रकार स्वार्थ पूर्ण जिंदगी जी कर धर्म से दूर है और कष्टों | उत्तम सुख के इच्छुक श्रावक धर्मात्मा जन, यद्यपि प्रतिदिन के भंवर में फसने को मजबूर है। इतिहास साक्षी है | देशदर्शन, पूजन, दान आदि करते हैं, फिर भी मानवमन मानव जब-जब धर्म से दूर हुआ, उसका पतन हुआ, | के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ की समस्यायें लगी धर्म हमें जीवन जीने की कला सिखाता है, धर्म की | हैं, जिसके कारण कभी क्रोध से, कभी मान से, कभी परिभाषा करते हुए आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते हैं | मायाचारी करके और कभी लोभ के वशीभूत होकर अधर्म "धर्म प्राणीमात्र को संसार के दुखों से उठाकर परम | कर बैठता है और मन विकृत हो जाता है। अतः मन सुख में रख देता है।" और संसार का प्रत्येक प्राणी | की निर्मलता के लिये अष्टमी, चर्तुदशी, अष्टान्हिका, सख चाहता है। बालक पैदा होता है, माँ के आंचल नगर रक्षक की में सुख खोजता है, वही बालक थोड़ा बड़ा होता है, | तरह आते हैं और जगाते हैं कि सावधान ! मनुष्यगति तो खेल खिलोने में सुख खोजता है, अब माँ चाहती | विषयों की नदी में बहाने के लिये नहीं, आत्म-कल्याण है बेटा मेरी गोद में बैठे, पर वह खिलोने में मस्त है, | करने के लिये है। प्रथम धर्म क्षमा है, जिसे मैं माँ कहता वही बालक बड़ा होता है, तो अध्ययन में, डिग्री प्राप्त | हूँ, तो माँ क्षमा कहती है, अरे बेटा ! क्रोध तेरा स्वभाव करने में, सर्विस, व्यापार, आदि आजीविका के साधनों | नहीं है, तेरा रूप नहीं है, जरा देख, तो दर्पण में अपने में सुख खोजता है, इसी खेल में शादी हो जाती है, | चेहरे को कैसा बेकार लग रहा है, अरे छोड़ इस क्रोध दोनों जीवनसाथी एक दूसरे में सुख खोजने लगते हैं | को, इस आग में कब तक जलता रहेगा, आचार्य भगवंत और प्रथम संतान होते ही दोनों प्राणी संतान के भविष्य | कहते हैं क्रोध की आग से बचना है, तो अपना काम में अपना सुख खोजने लगते हैं, उसके लिये नाना प्रयत्न | आप करो, दूसरों से अपेक्षा मत रखो, क्योंकि अपेक्षा करते हैं और जीवन का श्रेष्ठ समय निकल जाता है। पूरी न होने पर क्रोध आता है और मनुष्य को अपेक्षायें बचता है बुढ़ापा, साथ में रहती है अतीत की धूप छाँव | ही दुख देती हैं, अतः व्यक्ति के लिये ही नहीं परिवार भरी स्मृतियाँ। कुल मिलाकर ये जीव माँ के आंचल | पड़ोस एवं समाज के लिए दुखदायी क्रोध को छोड़ों से, नारी के अंक तक और नारी के अंक से मृत्यु | और अहंकार के घोड़े से उतर कर उत्तम-मार्दव धर्म शय्या तक, पर पदार्थों में सुख खोजता रहता है, पर | से नाता जोड़ो और याद करो ये लोकोक्ति कि 'मान सुख मिलता नहीं। अतः सुख प्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय 'करन ते मर गये रहा न जिनका वंश, तीनन को तुम -सितम्बर 2008 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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