Book Title: Jinabhashita 2008 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ अरहन्त तथा केवली पं. जवाहरलाल शास्त्री, भीण्डर समस्त सयोग केवली व अयोग केवली की अर्हन्तता | हम सर्वप्रथम अरहन्त की परिभाषा आगम में देखते हैं शंका- 'अट्ठाईस मूलगुणों में से एक भी कम | १. खविदधादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसवट्ठा हो, तो वह साधु नहीं है, इसी प्रकार ४६ मूलगुणों के | अरहता णाम। (धवला। बंधस्वामित्व० । तीर्थंकरबंधकारण०) अभाव में, कोई भी जीव अरहन्तपद का अधिकारी नहीं, अर्थ- जिन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलचाहे वह राम हो या कोई तीर्थंकर। भरत राम आदि | ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को देख लिया है, वे अरहन्त केवली ही थे, अरहन्त नहीं। सभी केवली अरहन्त हों, ऐसा नहीं है, पर सभी अरहन्त तो केवली अवश्य हैं।' २. अरिहननादरिहन्ता। नरकतिर्यक्कुमानुष्यप्रेताइस पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। वर्णी जी ने कोश | वासगताशेषुदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः। तथा च में भूल की है। शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां समाधान- पूज्य वर्णी जी महाविद्वान् थे। उन्होंने | मोहतन्त्रत्वात्। न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यगलती नहीं की है। वे महान् साधक तथा प्रकाण्ड बोद्धा निष्पत्तौ व्यापृतान्युपलभ्यन्ते, येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत। थे। मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्वोपजैसे गुण छत्तीस पच्चीस आठ बीस, भव तारण | लम्भात् न तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरणतरण जहाज ईश। (देव-शास्त्र-गुरु-पूजा, पं. द्यानतराय प्रबन्ध-लक्षणसंसारोत्पादनसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्पासत्त्वजी) कह कर उपाध्यायों के पच्चीस गण बताये, परन्तु समानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रति-बन्धन'इसमें कुछ विशेषता भी है प्रत्ययसमर्थत्वाच्च। तस्यारेहननादरिहन्ता। (धवला) चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः, तात्का- अर्थ- 'अरि' अर्थात् शत्रुओं के 'हननात्' अर्थात् लिकप्रवचनव्याख्यातारो वा। (जीवस्थान सत्प्ररूपणा। नाश करने से 'अरिहन्त' हैं। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और धवला टीका) प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होनेवाले समस्त दु:खों चौदह विद्यास्थान के व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय | की प्राप्ति का निमित्त कारण होने से मोह को 'अरि' होते हैं। अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करनेवाले | अर्थात् शत्रु कहा है। उपाध्याय होते हैं। (भगवद् वीरसेनस्वामी) शंका- केवल मोह को ही अरि मान लेने पर ___ पू. ज्ञानमती माताजी ने भी इसी के अनुसार लिखा | शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है? है- "जिन्हें ११ अंग और १४ पूर्वो का या उस समय | समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकी के समस्त के सभी प्रमुख शास्त्रों का ज्ञान है, जो मुनिसंघ के साधुओं | कर्म, मोह के अधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपनेको पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं।" | अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये (बालविकास २/१६)। जाते हैं, जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतंत्र समझे इससे काँच के माफिक स्पष्ट है कि २५ गुण | जायें, इसलिए सच्चा अरि, मोह ही है, और शेष कर्म तो उपाध्याय के उत्कृष्टतः होते हैं। फिर तत्कालीन बहुज्ञ | उसके अधीन हैं। पाठक, गुरु, साधु भी उपाध्याय ही कहलाते हैं। यह शंका- मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही धवला का स्पष्ट हार्द है। ऐसे ही ४६ गुण तो उत्कृष्टता | काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनका की अपेक्षा हैं, अनत्कृष्टता की अपेक्षा इनसे (४६ से) | मोह के आधीन होना नहीं बनता? हीन गुणवाला भी अरहन्त होता है, ऐसा मानने में हमें | समाधान- ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्ममरण की परम्परा । शंकाकार को अरहन्त पद का अर्थ एवं परिभाषा | रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं का ज्ञान नहीं है, इसलिए यह शंका उठी है। इसलिए | रहने से, उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता सितम्बर 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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