Book Title: Jinabhashita 2008 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ मारीच से महावीर ___ डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई भारतभूमि मानवता को आलोकित करनेवाली । प्रसिद्ध होगा। भगवान् वृषभदेव की यह भविष्यवाणी महापुरुषों की जन्मभूमि रही है। इस भूमि पर अनन्त काल- | सुनकर साधु मारीच अहंकारी हो गया और अपने दादा प्रवाह में अनेकों विभूतियाँ उत्पन्न हुई, जिन्होंने त्याग, | द्वारा प्रतिपादित जिनमार्ग को छोड़कर एक नए धर्म की साधना, संयम एवं समत्व का जीवन जीकर समूची मानवता | स्थापना की। उसने सोचा कि मैं देखता हूँ कि कैसे मैं को सद्राह दिखाई। इन महापुरुषों की गणना धर्मग्रन्थों में दादा के मार्ग पर चलकर महावीर बनता हूँ। इस प्रकार कहीं अवतार, कहीं भगवान् और कहीं तीर्थङ्कर के रूप | मारीच के जीव ने आत्मस्वरूप के प्रतिकूल प्रतिगामी मार्ग में की गई है। कालान्तर में यही महापुरुष नए धर्म या | अपना लिया। विचारधारा के प्रवर्तक मान लिए गए। काल प्रवाह में जीवों के भावों के अनुसार अनन्त पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु के २४ अवतार | परिवर्तन हुए। असंख्य वर्ष तक मारीच के जीव ने नरक, हुए जिनमें मत्स्य, कच्छप, बाराह अवतार पशुजगत् से | स्वर्ग, पशु, मनुष्यगति में भ्रमण कर अनेक प्रयोग किए संबंधित हैं, जबकि भगवान् वृषभदेव, भगवान राम, नारायण | किन्तु वह सच्चे आत्मसुख को प्राप्त नहीं कर सका। कृष्ण एवं म. बुद्ध आदि महापुरुषों ने प्रकृति-पुरुष एवं | वृषभदेव का पौत्र एवं सम्राट भरत का पुत्र अनन्त दु:ख सुख की अपने समय में नई विचारधाराओं को जन्म दिया | सहन करता हुआ अन्ततः महावीर बनने के पूर्व दसवें भव और वे इनके प्रतीक के रूप में विविध धर्मों के प्रवर्तक | में सिंह पर्याय में वनराज बना। वनराज अपने दैनिक चर्या स्वीकार किए गए। के क्रम में हिरण का मांस भक्षण करना चाहता था। अन्तिम कुलकर नाभिराय के पुत्र वृषभदेव को | अचानक चारणऋद्धिधारी करुणावंत दो साधु भावमुद्रा में भगवान् विष्णु का अष्टम् अवतार माना है जो युग-प्रवर्तक | सिंह के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने क्रूर परिणामी सिंह के रूप में आदिनाथ के नाम से मान्य किए गए हैं। भगवान् | के जीव से आँखें मिलाते हुए उसे अहिंसा एवं करुणा आदिनाथ शिवस्वरूप माने गए हैं। कैलाश-पर्वत उनकी | का आत्मोपदेश दिया। आँखों के माध्यम से सिंह की आत्मा साधना स्थली थी एवं वृषभ उनका प्रतीक था, उन्हें शिव | में बसे परमात्मा की अनुभूति हुई। उसका अज्ञान और रूप में भी हिन्दू पुराणों में मान्य किया है। यह भी एक | कषाय विभाव गलने लगे। उसके ज्ञान नेत्र खुले और उसने पौराणिक तथ्य है कि राजा वृषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र सम्राट | अपने आत्मा के ज्ञायकस्वरूप को अनुभूत किया। इस भरत के नाम पर इस भूखण्ड का नाम भारतवर्ष पड़ा। प्रकार जो आत्मश्रद्धान मारीच के रूप में नर पर्याय में संभव भगवान् वृषभदेव विष्णु के अवतार के साथ ही नहीं हो सका वह काललब्धि पाकर सिंह की अवस्था में जैनधर्म के आद्यप्रवर्तक हैं, जिन्होंने इस बात की प्रसिद्धि | अनुभूत हुआ और पशुपर्याय से परमात्मा बनने के राह पर की कि स्वावलम्बनरूप आनन्द एवं सुख आत्मा के ही | चल पड़ा। यह है अशुभ परिणामों से शुभ एवं शुद्ध परिणामों गुण हैं और उन्हें बिना किसी परवस्तु के सहारे अपने ज्ञान | में परिवर्तन का सुफल। स्वभाव में ज़मे रमे रहने से प्राप्त किए जा सकते हैं। सिंह के जीव ने संकल्पी हिंसा का त्याग कर दिया स्वावलम्बन की यह स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है जब और आत्मसाधना की ओर चल पड़ा। भवांतर में उसने व्यक्ति अणु-अणु की स्वतंत्रता को स्वीकार करे और अपने | मुनिव्रत धारण किया, स्वर्ग गया और अन्ततः दसवें भव से भिन्न प्रकृति या परवस्तुओं में किसी भी प्रकार का में महाराज सिद्धार्थ के यहाँ राजपुत्र के रूप में जन्म लिया। हस्तक्षेप एवं राग-द्वेष न करे क्योंकि यही दुख का मूल | राजकुमार महावीर ३० वर्ष तक परिवार में रहे, राजसी है। मुनि वृषभदेव द्वारा सर्वज्ञता प्राप्त करने पर उनके पुत्र | वैभव में वे अपने आत्मा के अनुभव द्वारा आत्मसाधना भरत ने उनसे पूछा कि क्या इक्ष्वाकुवंश में आप जैसा अन्य | करते रहे। उनका जीवन जल में कमल के समान अलिप्त कोई सदस्य तीर्थकर होगा, इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि रहा। ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने परमात्मपद प्राप्त करने तुम्हारा पुत्र मारीच ही महावीर के नाम से २४वाँ तीर्थङ्कर | हेतु दीक्षा ली। वे १२ वर्षों तक आत्मा के ज्ञायकस्वभाव - अप्रैल 2008 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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