Book Title: Jinabhashita 2008 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ मानवजीवन की सफलता : पण्डित होने से क्षुल्लक श्री शीतलसागर जी प्राचीन संस्कृति से चला आया 'पण्डित' यह एक मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्। बहुत ही सुहावना शब्द है। विरले भाग्यशाली ही इस शब्द आत्मवत्सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।। से सम्बोधित होते हैं। अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जो पण्डित | अर्थात् जो पराई स्त्रियों को माता के समान, दूसरे बनने की कोशिश करते हैं, लेकिन बन नहीं पाते। कोई के धन को लोष्ठ के समान और प्राणीमात्र को अपने समान ऐसे भी पण्डित हैं जो इस पद को बुरा मानते हैं। एक | समझता है, वह पण्डित है। बार एक पण्डित जी ने सुनाया था प्रश्नोत्तर रत्नमालिका ग्रन्थ में आया है- 'कः पंडिताई पल्ले पड़ी, पूर्व जन्म को पाप। पण्डितो? विवेकी' अर्थात् पण्डित कौन है? जो विवेकीऔरन को उपदेश दे, कोरे रह गये आप॥ हित और अहित का विचार रखने वाला है वह पण्डित एक जगह आया है- 'पंडा विद्यते यस्य सः पंडितः' | है। अर्थात् जिसके बुद्धि हो वह पण्डित है। परन्तु शास्त्रीय दृष्टि | | एक बार मूर्ख का लक्षण मालूम करने के लिये से विचारा जाय तो ऐसा कोई प्राणी है नहीं कि जिसके | राजा भोज ने भरी सभा में पण्डित कालिदास को मूर्ख बुद्धि अर्थात् ज्ञान न हो। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों में भी महर्षियों | कहकर बुलाया था कि 'आईये मूर्खराज! आईये मूर्खराज!' ने मति और श्रुत ये दो ज्ञान माने हैं। अतः इस परिभाषा | इस पर विद्वान् कालिदास ने उत्तर दिया थाके अनुसार सभी प्राणी पण्डित कहे जायेंगे। इसलिये मात्र खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे, 'ज्ञान होने से कोई पण्डित नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार गतन्न शोचामि कृतन्तु मन्ये। एक जगह पढ़ने में आया है द्वाभ्यां त्रितयो न भवामि राजन्! 'पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते' किं कारणं भोज! भवामि मूर्खः॥ अर्थात्- राजा भोज के दिवंगत (स्वर्गस्थ) हो जाने अर्थात हे राजा भोज! मैं खाते हये नहीं चलता. हँसते के बाद कोई पण्डित नहीं रहा। हुये बात नहीं करता, जो हो चुका उसका शोक नहीं करता, राजा भोज संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। इतना | उपकारी के उपकार को नहीं भूलता और जहाँ दो व्यक्ति ही नहीं, उसके समय में दीन से दीन व्यक्ति भी संस्कृत | बात करते हों वहाँ नहीं जाता, फिर आपने मुझे मूर्ख कहकर भाषा का शुद्ध उच्चारण करता था और उनके स्वर्गस्थ हो कैसे बुलाया? कालिदास के उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता जाने के बाद वह स्थिति नहीं रही। अतः संसार में उपरोक्त है कि जो चलते हुये नहीं खाता, बात करते समय नहीं उक्ति प्रसिद्ध हुई। हँसता, हो चुका उसका शोक नहीं करता, उपकारी के परन्तु यहाँ विचारणीय है कि मात्र संस्कृत भाषा का | उपकार को कभी नहीं भूलता और जहाँ दो व्यक्ति बात विशेष ज्ञान होने से भी कोई पण्डित नहीं होता। इसी प्रकार | कर रहे हों वहाँ नहीं जाता, वह पण्डित है। प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, कन्नड़, | | परमानन्द स्तोत्र में पंडित का बहुत ही सुन्दर लक्षण तेलग, गजराती आदि एक भाषा का अथवा दो आदि सम्पर्ण | आया है। उसमें लिखा हैभाषाओं का भी यदि कोई प्रकाण्ड विद्वान् हो, तो भी वह सदाऽऽनन्दमयं जीवं, जानाति सः पण्डितः। पण्डित नहीं कहला सकता। स सेवते निजाऽऽत्मानं, परमानन्द-कारणम्॥ विश्व में अच्छे से अच्छे वक्ता-प्रवचनकर्ता होते अर्थात् पण्डित वह है जो कि जीव को नित्य आये हैं और वर्तमान में भी हजारों हैं, परन्तु मात्र घण्टों आनन्दमय जानता है तथा परमानन्द के कारणभूत उस निज तक धाराप्रवाह प्रवचन कर देने अथवा वक्तृत्व शैली द्वारा आत्मा को ही सेवता-अनुभव करता है। हजारों नर-नारियों को मंत्रमुग्ध कर देने से पण्डित नहीं आगे उसी स्तोत्र के तेईसवें श्लोक में भी पण्डित कहला सकते। हाँ! निम्न लक्षणवाला पण्डित कहला | का का लक्षण आया है, जो कि विशेष आदरणीय है। वहाँ सकता है - अप्रैल 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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