Book Title: Jinabhashita 2008 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। फोर्स) जो पास में स्थित थे, को जैनकाल के 21 स्कल्पचर्स पारिनगर के मेंगो नामक एक जैनव्यक्ति ने यह गोरी प्राप्त हुए थे। शुरु में रेंजर्स ने म्यूजियम के अधिकारियों को मन्दिर बनवाया था। इस मन्दिर की लम्बाई-चौड़ाई समान नहीं अपने केम्प में आने नहीं दिया था, लेकिन बाद में उच्च है। इसका बाह्य विस्तार उत्तर से दक्षिण दिशा में 74 फुट | अधिकारियों के दबाव में उन्हें जाने की अनुमति प्राप्त हो लम्बा तथा पूर्व से पश्चिम दिशा में 49 फुट चौड़ा है। | सकी थी। मन्दिर का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में गुम्बज के आकार | कासिम का विश्वास है कि पारिनगर से प्राप्त अवशेष के पोर्च (ड्योढ़ी/ओसारा) से होकर है। इसमें आठ खम्बे न केवल अनुसन्धान एवं शोध करनेवालों के केनोपी (Canopy) सहित हैं। उनमें से कुछ खम्बे सफेद रहेंगे बल्कि इससे इतिहास को गहराई पूर्वक ठीकतरह से संगमरमर और कुछ चूना पत्थर के हैं, जिन पर चूने द्वारा समझा जा सकेगा। इससे उस स्थान को धार्मिक पर्यटकों की सफेदी की गई है। हाल में 28 खम्बे हैं। इसके बाद एक दृष्टि से भी विकसित किया जा सकेगा। 'यहाँ जो लोहे के और कक्ष है जिसे 'ओरधी मण्डप' (Ordhi mandap) कहा | टुकड़े प्राप्त हुए हैं वे इस ओर संकेत करते हैं कि प्राचीन जाता है। मन्दिर के अन्त में एक और कक्ष है जिसे 'विहार' | पारिनगर में जहाज निर्माण से सम्बन्धित व्यवसाय होता होगा।' नाम से जाना जाता है। पूरे मन्दिर में जगह-जगह फ्रेस्को चचा अली नवाज, 82 वर्ष, जो नगरपारकर के रहने पेन्टिंग (Fresco Painting) बनी हुई हैं। मंदिर ऐसी दुर्दशा वाले हैं कहते हैं कि जैनसमुदाय के व्यक्ति पाकिस्तान बनने में है कि मंदिर की पेरापेट वॉल (Parapet wall) का पूर्ण | से पूर्व नगरपारकर में रहते थे। लेकिन 14 अगस्त, 1947 क्षय हो चुका है। इस मन्दिर के संरक्षण और पुनर्निर्माण की | को पाकिस्तान बनने पर वे भारत चले गए और अपने साथ शीघ्र आवश्यकता है। बहुत सारी मूर्तियाँ भी ले गए। मंदिर को क्षतिग्रस्त करने में धार्मिक विद्वेष भी कारण थारपारकर में 40 प्रतिशत से अधिक हिन्दू रहते हैं है। दो ऐसी मूर्तियाँ, जो आलिंगनबद्ध मुद्रा में थीं, उन्हें क्षति | जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति के भील और कोली हैं, पहुँचा दी गई है, ऐसा विदित हुआ है। कासिम के कथनानुसार, परन्तु वहाँ कभी साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई। वहाँ के हिन्दू 'ऐसा अनुमान है कि यह मन्दिर पारिनगर शहर का हिस्सा | युवक मोहर्रम के पवित्र अवसर पर मुसलमानों के जुलूस में था। यदि इस स्थान में भली प्रकार से खुदाई की जाए तो भी सम्मिलित होते हुए देखे जाते हैं। हमें उस नगर के इतिहास से सम्बन्धित पुरातत्त्वीय महत्त्व सन् 1960 के पूर्व थारपारकर की अर्थ-व्यवस्था की अनेक कलात्मक वस्तुओं के मिलने की भी सम्भावना | स्वाश्रित थी और आपस में एक दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध एवं | व्यापार वस्तुओं के विनिमय (Barter) पर आधारित थे। कासिम के अनुसार कच्छ का रन समुद्र का भाग था | लेकिन सन् 1970 के दशक में मुद्रा पर आधारित अर्थ-व्यवस्था और पारिनगर उस समुद्र के तट पर ईसा से 500 वर्ष पूर्व एवं सन् 1990 के दशक में सड़कों के जालों के निर्माण के एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हेतु यह | पश्चात् बहुत बदलाव आ गया है। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था और यहाँ से कच्छ, भुज, सड़के बनने से पूर्व थारपारकर के निवासी बिचौलियों पोरबन्दर, माण्डल्या, लंका और सुमात्रा देश से व्यापार होता | पर पूर्णतः निर्भर रहते थे, जो उनके पशुधन (थारपारकर में था। | पशु-धन और व्यक्तियों का अनुपात 5:1 है), कम्बल तथा ऐसा कहा जाता है कि पारिनगर बन्दरगाह भयंकर | गलीचे आदि बहुत सस्ते मूल्य में खरीद कर कराँची के बाजार भूकम्प के कारण नष्ट हो गया था तारिख फरिस्ता के | में बहुत ऊँची कीमत में बेच देते थे। अब थारपारकर के कथनानुसार, अब्ने-बतूता यहाँ होकर गये थे और इसे सन् 1223 में जलालुद्दीन खवारिजा शाह ने नष्ट कर दिया था।| मूल्य प्राप्त करने हेतु सौदेबाजी कर उचित मूल्य प्राप्त कर पूर्व में यहाँ 6 जैनमन्दिर थे। सकते हैं। उनमें से कुछ लोग तो कराँची जाकर भी अपने सन् 2006 में दो सूचनाएँ आईं थी कि वीरवाह- माल को उचित मूल्य में बेचते हैं। ऐसा अक्सर ईद-उलनगरपारकर सड़क के निर्माण करते समय स्वर्ण आभूषणों से | अजा, जब मुसलमान पशुओं की बलि देते हैं, का समय होता भरा हुआ एक अत्यन्त प्राचीन घड़ा प्राप्त हुआ था और खुदाई| है। करने वाले मजदूर उसे ले गए थे। सड़क निर्माण के समय 7/3, नूपुर कुँज, ई-3, अरेरा कॉलोनी, जनवरी 2006 में स्थानीय निवासियों और रेंजर्स (पैरा मिलिट्री भोपाल (म.प्र.) 24 अप्रैल 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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