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क साथ निरन्तर सम्पक कर आत्मा में डूबे रहने का अभ्यास | ज्ञान के द्वारा रूपान्तरण की इस अंत:प्रक्रिया में करते रहे संस्कारगत विकार उनके उदय में उठते किन्तु | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य इन पाँच महावीर ने उन्हें अपना नहीं माना। वे उनके साक्षी ज्ञाता | व्रतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे आत्मस्वरूप की बने रहे और उन पर से दृष्टि उठाकर आत्मरमण करते अनुभूति एवं उसके प्रति रुझान के साथ-साथ पाँचों पापों रहे। बाहर से लोगों को यही लगता है कि वे दिगम्बर बने | की आसक्ति क्रमशः घटती जाती है जिससे ज्ञानस्वरूप में कठोर साधना कर रहे हैं किन्तु वास्तव में वे तो आत्मा रमण हेतु उचित वातावरण निर्मित होता है। ऐसे आत्मसाधक का साक्षात्कार कर अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति कर रहे | विचारों से अनाग्रही एवं दर्शक होते हैं निश्चय से चारित्र थे। साधना के काल में एक क्षण ऐसा भी आया जब पूर्वबद्ध | ही धर्म है। कर्मों की जंजीरें टूट गई और वे वीतरागी होकर सर्वज्ञ | भगवान् महावीर के वीतरागता का उपदेश श्रवण बन गए। सर्वज्ञ अर्थात् समय और स्थान की सीमाओं से | कर जिन गृहस्थ महानुभावों ने उनका अनुसरण/अनुकरण परे अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति आत्म-वैभव की होने रूप | किया श्रावक कहलाये। उन्होंने महावीर का उपदेश श्रवण सतत् अनुभूति।
कर अपनी आत्मा के ज्ञायकस्वभाव का श्रद्धान कर घर सर्वज्ञ बनने के पश्चात् उन्होंने तीस वर्षों तक जगती | में रहकर आत्मस्वभाव के सम्मुख होकर साधना की ओर के जीवों को वीतरागता एवं आत्मसाधना का उपदेश दिया। पंचाणुव्रत धारण किए। जिन भव्य महानुभावों ने उनके उन्होंने आत्मस्वरूप के प्रति खोटी मान्यता, अज्ञान एवं | उपदेश को सुनकर पंचमहाव्रत एवं वैराग्ययुक्त संयम का असंयम को दख का मल बताया। उन्होंने कहा कि आत्म | मार्ग अपनाया वे श्रमण या साध कहलाए। श्रमण सभी प्रकार श्रद्धान एवं पर-वस्तुओं से सुख प्राप्त करने की आकांक्षा के बाह्य आन्तरिक परिग्रह के त्यागी होते हैं। वीरागता के यह दो प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिनसे जीवन में विकृति उत्पन्न | चरम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अन्ततः गृहस्थों को भी सर्व होती है और दुखों का सूत्रपात होता है। इस कारण व्यक्ति | परिग्रह त्याग कर संयम मार्ग अपनाना होता है। सर्व देश पर-वस्तुओं के प्रति मूर्च्छित होकर बेहोशी में क्रोध, | वीतरागी होने के कारण साधु/मुनि भी पंच-परमेष्ठी में अहंकार कपट एवं लोभ आदि आत्म-विकारों को अपना | सम्मिलित किए गये हैं और वे पूज्यता को प्राप्त हैं। स्वभाव भाव मानता है। महावीर ने कहा कि इन आत्म- | वीतरागता के अभाव में पूज्यपना नहीं बनता यही जिनाज्ञा विकारों से छूटने का एकमात्र उपाय आत्मश्रद्धान आत्मज्ञान | है। एवं आत्म निमग्नता है। इसे ही त्रिरत्नरूप मोक्षमार्ग कहा . जीवन में सत्य की खोज तथा अपने आत्मस्वरूप है। इसका निरूपण निश्चय एवं व्यवहार रूप से किया | को प्राप्तकर शाश्वत सख चाहनेवाले महानभावों को गया है।
भगवान् वृषभदेव एवं भगवान् महावीर द्वारा उपदेशित आत्म मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में ज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण | स्वावलम्बन एवं सत्य के मार्ग पर चलना अपेक्षित है। इसमें है। ज्ञान के माध्यम से ही वस्तु स्वरूप की जानकारी एवं | सभी जीवों एवं समाज का हित हैं। आत्मा के गुणों के प्रति अहंभाव उत्पन्न होता है। यही आइये, हम अपने आत्मस्वरूप को जाने, पहिचानें अहंभाव जब स्थापित हो जाता है तब ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव | और जागरूक होकर आत्मस्वरूप में मरण कर भगवान् रूप मात्र 'होना' शेष रह जाता है। स्वभाव में होने की | महावीर जैसे पश से परमात्मा या निजात्मा से परमात्मा स्वीकृति ही धर्म की शुरुआत है और स्वभाव में सतत् | बनने का प्रयास करें। निजात्मा की प्राप्ति के लिए योनि, प्रवाहरूप से जमे रमे रहना ही धर्म है। सश्रद्धान के माध्यम | पंथ, सम्प्रदाय, काल, धर्म, जाति कोई भी तत्त्व बाधक से असश्रद्धान एवं असआचार का रूपान्तरण सश्रद्धान | नहीं है। जो अपने आत्मस्वरूप को पहिचानता है, चाहता एवं सद्आचार के रूप में होता है। इससे आत्म-विकारों | है और अपने द्वारा अपने लिए अपने को प्राप्त करने हेतु की आसक्ति मंद एवं क्षीण होती है और आत्मलीनता के | प्रयासरत है, वहीं जिन अर्थात् जैन है। यही वृषभ महावीर अंशों में वृद्धि होती है। विभाव से स्वभाव में यह रूपान्तरण | संदेश है। ही अन्ततः जीवात्माओं को परमात्मपद तक ले जाता है।।
14 अप्रैल 2008 जिनभाषित
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