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डॉक्टर या सहृदयता का अवतार
क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी एक दिन बाईजी (धर्ममाता चिरौंजाबाई जी ) बगीचे | और ५० रु. फीस माँगी। मैंने देना स्वीकार किया, परन्तु में सामायिक पाठ पढ़ने के अनन्तरउन्होंने यह कहा कि 'भारतवर्ष के मनुष्य बड़े बेईमान होते हैं । तुम्हारे शरीर से तो यह प्रत्यय होता है कि तुम धनशाली हो, परन्तु कपड़े दरिद्रों जैसे पहने हो । ' मुझे उसके यह वचन तीर की तरह चुभे । भला आप ही बतलाइये जो रोगी के साथ ऐसे अनर्थपूर्ण वाक्यों का व्यवहार करे उसमें रोगी की श्रद्धा कैसे हो? इसी कारण मैंने यह विचार कर लिया था कि अब परमात्मा का स्मरण करके ही शेष आयु बिताऊँगी, व्यर्थ ही खेद क्यों करूँ? जो कमाया उसे आनन्द से भोगना ही उचित है । सुनकर डॉक्टर साहब बहुत प्रसन्न हुए । बोले'अच्छा हम अपना दौरा कैंसल करते हैं। सात बजे डॉकगाड़ी से झाँसी जाते हैं। तुम पेंसिजर गाड़ी से झाँसी अस्पताल में कल नौ बजे आओ, वहीं तुम्हारा इलाज होगा । बाईजी ने कहा- 'मैं अस्पताल में न रहूँगी, शहर की परवार धर्मशाल में रहूँगी और नौ बजे श्री भगवान् का दर्शन-पूजन कर आऊँगी। यदि आपकी मेरे ऊपर दया है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिये ।' डाक्टर महोदय न जाने बाईजी से कितने प्रसन्न थे । बोले- 'तुम जहाँ ठहरोगी, मैं वहीं आ जाऊँगा, परन्तु आज ही झाँसी जाओ, मैं जाता हूँ।'
'राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ॥ ' आदि बारह भावना पढ़ रही थीं। अचानक एक अँग्रेज, जो उसी बाग में टहल रहा था, उनके पास आया और पूछने लगा- 'तुम कौन हो ।' बाईजी ने आगन्तुक महाशय से कहा- 'पहले आप बताइये कि आप कौन हैं ? जब मुझे निश्चय हो जावेगा कि आप अमुक व्यक्ति हैं तभी मैं अपना परिचय दे सकूँगी ।' आगन्तुक महाशय ने कहा- 'हम झाँसी की बड़ी अस्पताल के सिविलसर्जन हैं, आँख के डॉक्टर हैं और लन्दन के निवासी अंग्रेज हैं।' बाईजी ने कहा- 'तब मेरे परिचय से आपको क्या लाभ?' उसने कहा कुछ लाभ नहीं, परन्तु तुम्हारे नेत्र में मोतियाबिन्द हो गया है। एक आँख का निकालना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि उसके देखने की शक्ति नष्ट हो चुकी है। पर दूसरे आँख में देखने की शक्ति है। उसका मोतियाबिन्द दूर होने से तुम्हें दीखने लगेगा।'
अब बाईजी ने उसे अपनी आत्मकथा सुनाई, अपनी द्रव्य की व्यवस्था, धर्माचरण की व्यवस्था आदि सब कुछ उसे सुना दिया और मेरी ओर इशारा कर यह भी कह दिया कि इस बालक को मैं पाल रही हूँ तथा इसे धर्मशास्त्र पढ़ाने के लिये बनारस रखती हूँ। मैं भी वहाँ रहती थी, पर आँख खराब हो जाने से यहाँ चली आई हूँ।
डॉक्टर साहब चले गये । हम, बाई जी और विनिया रात्रि के ११ बजे की गाड़ी से झाँसी पहुँच गये। प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त होकर धर्मशाला में आ गये। इतने में ही डॉक्टर साहब मय सामान के आ पहुँचे। आते ही साथ उन्होंने बाईजी को बैठाया और आँखों में एक औजार लगाया जिससे वह खुली रहे। जब डॉक्टर साहब ने आँख खुली रखने का यन्त्र लगाया तब बाईजी ने कुछ सिर हिला दिया। डॉक्टर साहब ने एक हलकी सी थप्पड़ बाईजी के सिर में दे दी। न जाने बाईजी किस विचार में निमग्न हो गईं। इतने में ही डॉक्टर साहब ने अस्त्र से मोतियाबिन्द निकाल कर बाहर कर दिया और पाँचों अंगुलियाँ उठाकर बाईजी के नेत्र के सामने की तथा पूछा कि बताओ कितनी अंगुलियाँ हैं ? बाईजी ने कहा- 'पाँच ।' इस तरह दो या तीन बार पूछकर
मार्च 2008 जिनभाषित 13
उसने पूछा- 'तुम्हारा निर्वाह कैसे होता है?' बाईजी ने कहा- 'मेरे पास १०००० रु. हैं, उसका १०० रु. मासिक सूद आता है, उसी में मेरा, लड़की का, इसकी माँ का और इस बच्चे का निर्वाह होता है। आँख के जाने से मेरा धर्म कार्य स्वतन्त्रता से नहीं होता।' डॉक्टर महोदय ने कहा- 'तुम चिन्ता मत करो, हम तुम्हारी आँख अच्छी कर देगा।' बाईजी ने कहा- महाशय ! मैं आपका कहना सत्य मानती हूँ, परन्तु एक बात मेरी सुन लीजिये, वह यह कि मैं एक बार झाँसी की बड़ी अस्पताल में गई थी। वहाँ पर एक बंगाली महाशय ने मेरी आँख देखी ।
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