Book Title: Jinabhashita 2008 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ आप लोगों से बहुत हिल गया है। तुम लोगों की खाने | से बहुत ही प्रसन्न हूँ। आप मेरे पिता हैं, अतः एक की प्रक्रिया बहुत ही निर्मल है। अल्प व्यय में ही उत्तमोत्तम | बात मेरी भी स्वीकार करेंगे।' डॉक्टर साहब ने कहाभोजन आपको मिल जाता है। हमारा बच्चा तो आपके | 'कहो, हम उसे अवश्य पालन करेंगे।' बाईजी बोलीपूड़ी-पापड़ से इतना खुश है कि प्रतिदिन खानसामा को | 'मैं और कुछ नहीं चाहती। केवल यह भिक्षा माँगती डाँटता रहता है कि तू बाईजी के यहाँ जैसा स्वादिष्ट | हूँ कि रविवार आपके यहाँ परमात्मा की उपासना का भोजन नहीं बनाता। हमारे भोजन में ऊपर की सफाई | दिन माना गया है, अतः उस दिन आप न तो किसी है परन्तु अभ्यन्तर कोई स्वच्छता नहीं। सबसे बड़ा तो | जीव को मारें, न खाने के वास्ते खानसामा से मरवावें यह अपराध है कि हमारे भोजन में कई जीव मारे जाते | और न खानेवाले की अनुमोदना करें...। आशा है मेरी हैं तथा जब मांस पकाया जाता है तब उसकी गन्ध आती | प्रार्थना आप स्वीकृत करेंगे।' डॉक्टर साहब ने बड़ी प्रसन्नता है। परन्तु हम लोग वहाँ जाते नहीं, अत: पता नहीं लगता। | से कहा-हमें तुम्हारी बात मान्य है। न हम खावेंगे, न तुम्हारे यहाँ जो दूध खाने की पद्धति है वह अतिउत्तम | मेम साहब को खाने देवेंगे और यह बालक तो पहले है। हम लोग मदिरापान करते हैं, जो कि हमारी निरी | से ही तुम्हारा हो रहा है। इसे भी हम इस नियम का मूर्खता है। तुम्हारे यहाँ दो आना के दूध में जो स्वादिष्टता | पालन करावेंगे। आप निश्चिन्त रहिये। मैं आपको अपनी और पुष्टता प्राप्त हो जाती हैं वह हमें २० रु. का मदिरापान | माता के समान मानता हूँ। अच्छा, अब फिर कभी आपके करने पर भी नहीं प्राप्त हो पाती। परन्तु क्या किया जावे? | दर्शन करूँगा। हम लोगों का देश शीत-प्रधान है, अतः वरंडी पीने की | इतना कहकर डॉक्टर साहब चले गये। हम लोग आदत हम लोगों को हो गई। जो संस्कार आजन्म से | आधा घंटा तक डॉक्टर साहब के गुण-गान करते रहे। पड़े हुए हैं उनका दूर होना दुर्लभ है। अस्तु आपकी | तथा अन्त में पुण्य के गुण-गाने लगे कि अनायास ही चर्या देख मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आप एक दिन में तीन | बाईजी के नेत्र खुलने का अवसर आ गया। किसी कवि बार परमात्मा की आराधना करती हैं। इतना ही नहीं | ने ठीक ही तो कहा हैभोजन की प्रक्रिया भी आपकी निर्मल है, परन्तु एक | 'वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा। त्रुटि हमें देखने में आई वह यह कि जिस कपड़े से | सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यनि पुराकृतानि॥' आपका पानी छाना जाता है वह स्वच्छ नहीं रहता तथा | कहने का तात्पर्य यह है कि पुण्य के सद्भाव भोजन बनाने वाली के वस्त्र प्रायः स्वच्छ नहीं रहते और | में, जिनकी सम्भावना नहीं, वे कार्य भी आनायास हो न भोजन का स्थान रसोई बनाने के स्थान से जुदा रहता | जाते हैं, अतः जिन जीवों को सुख की कामना है उन्हें है।' बाईजी ने कहा-'मैं आपके द्वारा दिखलाई हुई त्रुटि | पुण्य-कार्यों में सदा उपयोग लगाना चाहिए। को दूर करने का प्रयत्न करूंगी। मैं आपके व्यवहार | मेरी जीवन गाथा (भाग १/ पृ.१४२-१४८) से साभार अपयाप्त दशा तत्त्वदृष्टि वाले व्यक्ति संसार के प्रत्येक पदार्थ । महाराज हँसकर कहते हैं- पैर कम दिमाग ज्यादा में, घटना में, तत्त्व का ही दर्शन किया करते हैं। खराब होता है, यह खराब सड़क अपर्याप्त दशा जैसी यूँ कहो उसमें से तत्त्व को खोज लिया करते हैं। | है। जिस प्रकार अपर्याप्त दशा में मिश्रकाय योग रहता इसलिए कहा गया है "कि सृष्टि नहीं दृष्टि बदलो, | है, उसमें मिश्र वर्गणायें आती हैं, उसी प्रकार इस जीवन बदल जावेगा।" रास्ते पर चलने से अलग प्रकार का अनुभव हो रहा विहार करते हुए नरसिंहपुर की ओर जा रहे | है। थोडा रुककर बोले- हाँ अपूर्णता का नाम ही थे, रास्ता बहुत खराब था। आचार्य गुरुदेव से कहा- | अपर्याप्त दशा है वह यही है, जिसे पार करना है। ऐसे रास्ते पर समय बहुत लगता है एवं ऐसी सड़क | (28.01.2002 नरसिंहपुर) पर पैर भी छिल जाते हैं खराब हो जाते हैं। आचार्य मुनि श्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार - मार्च 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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