Book Title: Jinabhashita 2008 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ आँख में दवाई आदि लगाई। पश्चात् सीधा पड़े रहने | ने नम्रता के साथ कहा- 'मैं आपके सदृश महापुरुष की आज्ञा दी। इसके बाद डॉक्टर साहब १६ दिन और | का क्या आदर कर सकती हूँ? पर यह तुच्छ भेंट आपको आये। प्रतिदिन दो बार आते थे। अर्थात् ३२ बार डॉक्टर | समर्पित करती हूँ। आप इसे स्वीकार करेंगे। आपने मुझे साहब का शुभागमन हुआ। साथ में एक कम्पाउण्डर | आँख दी, जिससे मेरे सम्पूर्ण कार्य निर्विघ्न समाप्त हो तथा डॉक्टर साहब का एक बालक भी आता था। बालक सकेंगे। नेत्रों के बिना न तो मैं पठन-पाठन ही कर सकती की उमर १० वर्ष के लगभग होगी। बहुत ही सुन्दर थी और न इष्ट देव का दर्शन ही। यह आपकी अनुकम्पा था वह। का ही परिणाम है कि मैं निरोग हो सकी। यदि आप जहाँ बाईजी लेटी थीं, उसी के सामने बाईजी तथा जैसे महोपकारी महाशय का निमित्त न मिलता तो मैं हम लोगों के लिये भोजन बनता था। पहले ही दिन आजन्म नेत्र विहीन रहती, क्योंकि मैंने नियम कर लिया बालक की दृष्टि सामने भोजन के ऊपर गई। उसदिन | था कि अब कहीं नहीं भटकना और क्षेत्रपाल में ही भोजन में पापड़ तैयार किये गये थे। बालक ने ललिता | रहकर श्री अभिनन्दन स्वामी के स्मरण द्वारा शेष आयु बाई से कहा- 'यह क्या है?' ललिता ने बालक को | को पूर्ण करना। परन्तु आपके निमित्त से मैं पुनः धर्मध्यान पापड़ दे दिया। वह लेकर खाने लगा। ललिता ने एक | के योग्य बन सकी। इसके लिए आपको जितना धन्यवाद पूड़ी भी दे दी। उसने बड़ी प्रसन्नता से उन दोनों वस्तुओं ] दिया जावे उतना ही अल्प है। आप जैसे दयालु जीव को खाया। उसे न जाने उनमें क्यों आनन्द आया? वह | विरले ही होते हैं। मैं आपको यही आशीर्वाद देती हूँ प्रतिदिन डॉक्टर साहब के साथ आता और पूड़ी तथा | कि आपके परिणाम इसी प्रकार निर्मल और दयालु रहें पापड़ खाता। बाईजी के साथ उसकी अत्यन्त प्रीति हो जिससे संसार का उपकार हो। हमारे शास्त्र में वैद्य के गई। आते ही साथ कहने लगे- 'पूड़ी-पापड़ मँगाओं।' | लक्षण में एक लक्षण यह भी कहा है कि 'पीयूषपाणि' अस्तु, अर्थात् जिसके हाथ का स्पर्श अमृत का कार्य करे। वह सोलहवें दिन डॉक्टर साहब ने बाईजी से कहा | लक्षण आज मैंने प्रत्यक्ष देख लिया, क्योंकि आपके हाथ कि आपकी आँख अच्छी हो गयी। कल हम चश्मा के स्पर्श से ही मेरा नेत्र देखने में समर्थ हो गया। मैं और एक शीशी में दवा देंगे। अब आप जहाँ जाना चाहें | आपको क्या दे सकती हूँ?' सानन्द जा सकती हैं। यह कह कर डॉक्टर साहब चले इतना कहकर बाईजी की आँखों में हर्ष के अश्रु गये। जो लोग बाईजी को देखने के लिए आते थे वे | छलक पड़े और कण्ठ अवरुद्ध हो गया। डॉक्टर साहब बोले 'बाईजी! डॉक्टर साहब की एक बार की फीस बाईजी की कथा श्रवण कर बोले 'बाईजी! आपके पास १६ रु. है, अत: ३२ बार के ५१२ रु. होंगे, जो आपको | | जो कुछ है, मैं सुन चुका हूँ। यदि ये ५०० रु. मैं ले देना होंगे, अन्यथा वे अदालत द्वारा वसूल कर लेवेंगे।' जाऊँ तो तुम्हारे मूलधन में ५०० रु. कम हो जावेंगे और बाईजी बोलीं- 'यह तो तब होगा जब हम न देवेंगे।' | ५ रु. मासिक आपकी आय में न्यून हो जावेंगे। इसके उन्होंने गवदू पंसारी से, जो कि बाईजी के भाई | फलस्वरूप आपके मासिक व्यय में त्रुटि होने लगेगी। लगते थे, कहा कि ५१२ रु. दूकान से भेज दो। उन्होंने | हमारा तो डाक्टरी का पेशा है, एक धनाढ्य से हम ५१२ रु. भेज दिये। फिर बाजार से ४० रु. का मेवा | एक दिन में ५०० रु. ले लेते हैं, अतः तुम व्यर्थ की फल आदि मँगाया और डॉक्टर साहब के आने के पहले | चिन्ता मत करो। किसी के कहने से तुम्हें भय हो गया ही सबको थालियों में सजाकर रख दिया। दूसरे दिन | है, पर भय की बात नहीं। हम तुम्हारे धार्मिक नियमों प्रातः काल डॉक्टर साहब ने आकर आँख में दवा डाली | से बहुत खुश हैं। और यह जो मेवा फलादि रखे हैं, और चश्मा देते हुए कहा-'अब तुम आज ही चली जा | इनमें से तुम्हारे आशीर्वाद रूप कुछ फल लिये लेता सकती हो।' जब बाईजी ने नकद रुपयों और मेवा आदि | हूँ, शेष आपकी जो इच्छा हो सो करना तथा ११ रु. से सजी हुई थालियों की ओर संकेत किया तब उन्होंने | कम्पाउण्डर को दिये देते हैं। अब आप किसी को कुछ विस्मय के साथ पूछा- 'यह सब किसलिए?' बाईजी | नहीं देना। अच्छा, अब हम जाते हैं। हाँ, यह बच्चा मार्च 2008 जिनभाषित 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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