Book Title: Jinabhashita 2008 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ ? विशाल कार्य के लिए वह क्या कर सकेगा ! उसकी । को वापिस कर आ तथा अपना शिल्प-वैभव निष्काम लोभ-कषाय ने उसके अन्तस्तल को झकझोर दिया। उसने प्रधान अमात्य से अपने पारिश्रमिक के रूप में उतनी ही स्वर्ण राशि की याचना की जितना प्रस्तरखण्ड वह विन्ध्यगिरि से छीलेगा । भाव से प्रभु बाहुबलि के चरणों में समर्पित कर दे । शिल्पी चागद वम्भदेव को अपनी मातुश्री का उपदेश भा गया, उसके भाव बदले, लोभ कषाय का उसने दहन किया, माता के उपदेश और प्रभुभक्ति ने उसकी कायाकल्प कर दी । चागद वम्भदेव ने उसी समय प्रतिज्ञा की कि इस मूर्ति का निर्माण निःस्वार्थ और सेवाभाव से करूँगा, कोई पारिश्रमिक नहीं लूँगा और जब तक प्रतिमा का निर्माण नहीं हो जाता एकाशन व्रत धारण करूँगा। अंतरंगविशुद्धि ने तथा लोभ-निवृत्ति ने उसके हाथों से चिपका सोना छुड़ा दिया । वह तत्काल भागा-भागा गया और प्रधानामात्य के चरणों में जा गिरा । सारी स्वर्ण-राशि लौटाते हुए बिलख-बिलख कर रोता हुआ बोला- हे प्रभु! मेरी रक्षा करो, मेरी कला का मोल-भाव मत करो और मुझे बाहुबलि की प्रतिमा का निर्माण पूर्णतया निर्विकार भाव से करने दें। अगले दिन से शिल्पी भगवान् बाहुबलि की प्रतिमा का निर्माण पूर्णतया निर्विकार भाव, बड़ी श्रद्धानिष्ठा एवं संयमपूर्वक करने लगा । त्यागमूर्ति तक्षक चागद की ही १२ वर्ष की सतत तपस्या और साधना का पुण्यफल है कि ऐसी अलौकिक एवं श्रेष्ठ प्रतिमा का निर्माण हो सका जो आज हजार वर्ष बाद भी संसार के भक्तजनों की श्रद्धा और आस्था का केन्द्र है तथा विश्व इतिहास और पुरातत्व की बहुमूल्य धरोहर बन गई है। भगवान् बाहुबलि के भक्त चामुण्डराय ने शिल्पी चागद की यह शर्त सहर्ष स्वीकार ली और मूर्ति का निर्माण प्रारम्भ करवा दिया। संध्या काल में तराजू के एक पलड़े पर शिल्पी चागद के विकृत शिलाखण्ड थे और दूसरे पलड़े पर भगवद्भक्त एवं मातृ-सेवक चामुण्डराय की दमकती हुई स्वर्ण - राशि । चामुण्डराय ने शिल्पी को बड़ी श्रद्धापूर्वक वह स्वर्ण-राशि समर्पित की, वे कलाकार के मर्म को समझते थे। तक्षक चागद आज अपनी कला का मूल्य इतनी विशाल स्वर्ण-राशि के रूप में पाकर हर्ष से फूला नहीं समा रहा था, खुशी के मारे उसे घर पहुँचने में हुए विलम्ब का आभास ही न हुआ। घर पहुँचकर कलाकार जैसे ही अपनी कला के मूल्य को सहेजकर धरने लगा कि वह राशि उसके हाथ से ● छूट नहीं रही थी और न उसके हस्त उस स्वर्ण से अलग हो रहे थे, दोनों एक-दूसरे से चिपके हुए थे। भगवान् बाहुबलि की प्रतिमा का प्रधान शिल्पी असमंजस में था कि यह सब क्या हो रहा है? वह मन ही मन व्याकुल हो उठा, उसका हृदय इस हर्ष और उल्लास की वेला में खेद - खिन्न और दुःखी हो गया, तभी शिल्पी की माँ पधारी और कलाकार पुत्र की दुर्दशा देख बड़ी व्यथित हुई । लोभी शिल्पी ने अश्रु बिखेरते हुए अपनी राम कहानी माँ को सुना दी, माँ ने अपने कलाकार पुत्र को धीरज बँधाया और समझाया हे वत्स! क्या कला स्वर्ण के तुच्छ टुकड़ों में बिका करती है ? तुममें यह दुष्प्रवृत्ति कहाँ से जन्मी ? कला तो आराधना और अर्चना की वस्तु है, तुमने तो इसे बेचकर कलंकित कर दिया है। उस चामुण्डराय को तो देख जो मातृसेवा और प्रभु-भक्ति के वशीभूत हो तुझे इतना सब कुछ निर्लोभ- भाव से सहर्ष दे रहा है। अमर है वह शिल्पी चागद वम्भदेव जिसने भारत तू अपनी श्रेष्ठतम कला के पीछे इन तुच्छ स्वर्ण- खण्डों को नहीं सम्पूर्ण विश्व को एक अमूल्य धरोहर दी है। का लोभ त्याग और प्रभु को प्रणामकर इस स्वर्ण - राशि इस स्तंभ की विशेषता है कि यह अधर में विद्यमान है, इसके नीचे से एक रूमाल जैसा पतला कपड़ा निकल जाता है । Jain Education International प्रधान अमात्य चामुण्डराय के अन्तस्तल में भक्तसाधक शिल्पी चागद वम्भदेव की श्रद्धा और निष्ठा के प्रति अतीव रागात्मक सद्भाव उत्पन्न हुआ अतः उन्होंने भगवान् बाहुबलि के चिरस्थायीत्व की भाँति साधक शिल्पी की भक्ति को भी स्थायीत्व देने के लिए प्रतिमा के पास ही छह फुट ऊँचा चागदस्तम्भ का निर्माण कराया जो आज भी उनकी यशोगाथा गा रहा है। 'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व' ( भाग १ ) से साभार मैं जिसके हाथ में एक फूल दे के आया था । उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है ॥ कृष्णबिहारी नूर For Private & Personal Use Only मार्च 2008 जिनभाषित 17 www.jainelibrary.org

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