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अर्थ- दर्शनकर, दूर से ही जिन्होंने अपने मस्तक | १. श्री धवला पु० १४ पृष्ठ ३९८-३९९ में इस प्रकार । नम्रीभूत कर लिये हैं, ऐसे इन्द्रों ने जमीन पर घुटने टेककर | कहा है
उन्हें प्रणाम किया. प्रणाम करते समय वे इन्द्र ऐसे जान | यहाँ शंका है कि उत्तरकुरु और देवकुरु के सब पड़ते थे, मानो अपने मुकुटों के अग्रभाग में लगी हुई | मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, इसलिये मालाओं के समूह से जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणों की तीन पल्य की स्थिति वाले के यह विशेषण युक्त नहीं है। पूजा ही कर रहे हों।
इसका समाधान करते हुये कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं ३. भावप्राभृत गाथा १ की टीका में इस प्रकार कहा | है। क्योंकि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य
की स्थिति वाले ही होते हैं ऐसा कहने का फल वहाँ पर "आचार्योपाध्यायसर्वसाधून त्रिविधान् मुनीन् नत्वा, शेष आयु स्थिति के विकल्पों का निषेध करना है। और केन उत्तमांगेन जानुकूर्परशिरः पंचकेन प्रणिपत्येत्यर्थः।" इस सूत्र को छोड़कर अन्य सूत्र नहीं है, जिससे यह ज्ञान
अर्थ- आचार्य, उपाध्याय तथा साधू इन तीन प्रकार | हो कि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की के मुनियों को दो घुटने, दो कोहनी, और शिर इन पाँच | स्थिति वाले ही होते हैं, अत: यह विशेषण सफल है। अथवा अंगों से नमस्कार करके ग्रंथ को की
एक समय अधिक दो पल्य को लेकर, एक समय कम ४. पद्मपुराण सर्ग १४ में इस प्रकार कहा है- | तीन पल्य तक के स्थिति विकल्पों का निषेध करने के जानुम्यां भुविमाक्रम्य प्रणम्य मुनिमादरात्। लिये सूत्र में ३ पल्य की स्थिति वाले पद का ग्रहण किया अन्यानपि महाशक्ति नियमान् स समार्जयत्॥३७५॥ है। सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु जिस प्रकार निर्विकल्प
अर्थ- इसके सिवाय उसने (दशानन ने) पृथ्वी पर | होती है, उस प्रकार देवकुरु-उत्तरकुरु की आयु निर्विकल्प घुटने टेक मुनिराज को आदरपूर्वक नमस्कार कर और भी | नहीं होती क्योंकि इस प्रकार की आयु की प्ररूपणा करने बड़े-बड़े नियम लिये। पद्मपुराण भाग १ पृष्ठ २१ पर | वाला सूत्र और व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता। भी इसी प्रकार वर्णन है।
२. श्री आचारसार अधिकार ११ में इस प्रकार कहा इन सभी प्रमाणों से ज्ञात होता है कि शास्त्रों में दंडवत् | हैप्रणाम का उल्लेख नहीं मिलता है। कुछ साधर्मी भाई अन्य जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भोगभूमिष्ववस्थितम्। धर्म के लोगों को देखकर मंदिर जी में जो दंडवत् करने स्योदेकद्वित्रिपल्यायुर्नित्या स्वन्यासुतद्वरम्॥ ५६॥ लगे हैं, वह प्रथा उचित नहीं है।
पूर्व कोट्येकपल्यं च पल्य द्वयमिति त्रयम्। प्रश्न- तत्त्वार्थ सूत्र में पाँचों व्रतों की ५-५ भावनाओं समयेनाधिकं तासु नृतिर्यक्ष्वस्वरं क्रमात्॥ ५७॥ का वर्णन है। परन्तु सम्यक्त्व की नहीं। तो क्या अन्य ग्रंथों
अर्थ- नित्य अर्थात् शाश्वत तथा अन्य अर्थात् में सम्यग्दर्शन की भावनाओं का वर्णन उपलब्ध है या नहीं? | अशाश्वत, जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि में अवस्थित
समाधान- श्री आदिपुराण सर्ग २१ श्लोक नं. ९७ | उन जीवों की उत्कृष्ट आयु एक, दो तथा तीन पल्योपम में सम्यग्दर्शन की सात भावनायें इस प्रकार कहीं हैं- है। ५६। संवेग-प्रशम-स्थैर्यमसंमूढत्वमस्मयः।
उन्हीं भोगभूमियों में मनुष्य और तिर्ययों में, जघन्य आस्तिक्यमनुकंपेति ज्ञेयाः सम्यक्त्वभावनाः। ९७। | आयु क्रम से एक समय अधिक पूर्व कोटि, एक समय
अर्थ-संसार से भय होना, शांत परिणाम होना, धीरता | अधिक एक पल्य और एक समय अधिक दो पल्य है। रखना, मूढताओं का त्याग करना गर्व नहीं करना, श्रद्धा
५७। रखना और दया करना, ये सम्यग्दर्शन की ७ भावनायें जानने उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार देवकुरु तथा उत्तरकुरु योग्य हैं।
में जघन्य आयु दो पल्य एक समय तथा उत्कृष्ट आयु प्रश्नकर्ता- सौ. पुष्पलता, सागर
३ पल्य माननी चाहिये। प्रश्न- उत्तम भोगभूमि (देवकुरु, उत्तरकुरु आदि) प्रश्न- यदि दीक्षा गुरु (आचार्य) शिथिलाचारी हो में जघन्य आयु होती है या नहीं?
गया हो तो साधु उसकी वंदना करे, प्रवचन से पूर्व उसकी समाधान- देवकुरु, उत्तरकुरु आदि शाश्वत भोगभूमियों जय बोले या न बोले। कृपया शास्त्रीय प्रमाण से समझायें। । में भी जघन्य आयु का विधान शास्त्रों में उपलब्ध होता समाधान- साधुओं के आचरण को बताने वाला है। कुछ आगम प्रमाण इस प्रकार हैं
| प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रंथ मूलाचार माना जाता है। इस
मार्च 2008 जिनभाषित 29
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