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जैन जागरण के अग्रदूत : बाबा भागीरथ जी वर्णी
। अतः
बाबा भागीरथजी वर्णी जैनसमाज के उन महापुरुषों । 3 ॥ मास का निवास तो बहुत ही याद आता है। में से थे, जिन्होंने आत्मकल्याण के साथ-साथ दूसरों के बाबाजी का जन्म सं० 1925 में मथुरा जिले के कल्याण की उत्कट भावना को मूर्त रूप दिया है। बाबाजी पण्डापुर नामक ग्राम में हुआ था । आपके पिता का नाम जैसे जैनधर्म के दृढ़ श्रद्धानी, कष्टसहिष्णु और आदर्श बलदेवदास और माता का मानकौर था। तीन वर्ष की त्यागी संसार में विरले ही होते हैं। आपकी कषाय बहुत अवस्था में पिता का और ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही मन्द थी। आपने जैनधर्म को धारणकर उसे जिस माता का स्वर्गवास हो गया था। आपके माता-पिता गरीब साहस एवं आत्मविश्वास के साथ पालन किया है, वह थे, इस कारण आपको शिक्षा प्राप्त करने का कोई साधन सुवर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है । आपने अपने उपदेशों उपलब्ध न हो सका। आपके माता-पिता वैष्णव और चरित्रबल से सैकड़ों जाटों को जैनधर्म में दीक्षित आप उसी धर्म के अनुसार प्रातः काल स्नान कर यमुनाकिया है- उन्हें जैनधर्म का प्रेमी और दृढ़ श्रद्धानी बनाया किनारे राम-राम जपा करते थे और गीली धोती पहने है, और उनके आचार-विचार - सम्बन्धी कार्यों में भारी हुए घर आते थे। इस तरह आप जब चौदह-पन्द्रह वर्ष सुधार किया है। आपके जाट शिष्यों में से शेरसिंह जाट के हो गये, तब आजीविका के निमित्त दिल्ली आये । का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है, जो बाबाजी के दिल्ली में किसी से कोई परिचय न होने के कारण बड़े भक्त हैं। नगला जिला मेरठ के रहनेवाले हैं और सबसे पहले आप मकान की चिनाई के कार्य में ईंटों जिन्होंने अपनी प्रायः सारी सम्पत्ति जैन मंदिर के निर्माण को उठाकर राजों को देने का कार्य करने लगे। उससे कार्य में लगा दी है। इसके सिवाय खतौली और आस- जब 5-6 रुपये पैदा कर लिये, तब उसे छोड़कर तौलिया पास के दस्सा भाइयों को जैनधर्म में स्थित रखना आपका रूमाल आदि का बेचना शुरू कर दिया । उस समय ही काम था। आपने उनके धर्मसाधनार्थ जैनमन्दिर का आपका जैनियों से बड़ा द्वेष था। बाबाजी जैनियों के निर्माण भी कराया है। आपके जीवन की सबसे बड़ी मुहल्ले में ही रहते थे और प्रतिदिन जैनमंदिरों के सामने विशेषता यह थी कि आप अपने विरोधी पर भी सदा से आया जाया करते थे। उस रास्ते जाते हुए आपको समदृष्टि रखते थे और विरोध के अवसर उपस्थित होने देखकर एक सज्जन ने कहा कि आप थोड़े समय के पर माध्यस्थ्य वृत्ति का अवलम्बन लिया करते थे और लिए मेरी दुकान पर आ जाया करो। मैं तुम्हें लिखनाकिसी कार्य के असफल होने पर कभी भी विषाद या पढ़ना सिखा दूँगा । तब से आप उनकी दुकान पर नित्यप्रति खेद नहीं करते थे। आपको भवितव्यता की अलंघ्य शक्ति जाने लगे। इस ओर लगन होने से आपने शीघ्र ही लिखनेपर दृढ़ विश्वास था । आपके दुबले-पतले शरीर में केवल पढ़ने का अभ्यास कर लिया । अस्थियों का पंजर ही अवशिष्ट था, फिर भी अन्त समय में आपकी मानसिक सहिष्णुता और नैतिक साहस में कोई कमी नहीं हुई थी । त्याग और तपस्या आपके जीवन का मुख्य ध्येय था, जो विविध प्रकार के संकटों विपत्तियों में भी आपके विवेक को सदा जाग्रत ( जागरूक) रखता था। खेद है कि वह आदर्श त्यागी आज अपने भौतिक शरीर में नहीं है, उनका ईसरी में 26 जनवरी सन् 42 को समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो गया है। फिर भी उनके त्याग और तपस्या की पवित्र स्मृति हमारे हृदय को पवित्र बनाये हुए है और वीरसेवामन्दिर में आपका
एक दिन आप यमुनास्नान के लिए जा रहे थे, कि जैनमंदिर के सामने से निकले। वहाँ 'पद्मपुराण' का प्रवचन हो रहा था। रास्ते में आपने उसे सुना, सुनकर आपको उससे बड़ा प्रेम हो गया और आपने उन्हीं सज्जन की मार्फत पद्मपुराण का अध्ययन किया । इसका अध्ययन करते ही आपकी दृष्टि में सहसा नया परिवर्तन हो गया और जैनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा गई। अब आप रोज जिनमंदिर जाने लगे तथा पूजन-स्वाध्याय नियम से करने लगे। इन कार्यों में आपको इतना रस आया कि कुछ दिन पश्चात् आप अपना धन्धा छोड़कर त्यागी बन गये, और आपने
मार्च 2008 जिनभाषित 11
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पं० परमानन्द जैन शास्त्री
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