Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 91 तन की गरमी तो मिटे, मन की भी मिट जाय । तीर्थ जहाँ पर उभय सुख, अमिट अमित मिल जाय ॥ 92 अनल सलिल हो विष सुधा, व्याल माल बन जाय दया मूर्ति के दरस से, "क्या का क्या" बन जाय ॥ 93 सुचिर काल से सो रहा, तन का करता राग । ऊषा सम नर जन्म है, जाग सके तो जाग ॥ 94 पूर्ण पुण्य का बन्ध हो, पाप-मूल मिट जात । दलदल पल में सब धुले, भारी हो बरसात ॥ 95 कुछ पर पीड़ा दूर कर, कुछ पर को दे पीर । सुख पाना जन चाहते, तरह-तरह तासीर ॥ 96 दुर्जन से जब भेंट हो, सज्जन की पहचान । ग्रहण लगे जब भानु को, तभी राहु का भान ॥ 97 तीरथ जिसमें अघ धुले, मिलता भव का तीर । कीरत जग भर में घुले, मिटती भव की पीर ॥ 98 सत्य कार्य, कारण सही, रही अहिंसा - मात । फल का कारण फूल है, फूल बचाओ भ्रात ! ॥ 99 अर्कतूल का पतन हो, जल-कण का पा संग । कण या मन के संग से, रहे न मुनि पासंग ॥ Jain Education International 100 जिसके उर में प्रभुलसे, क्यों न तजे जड़ राग । चन्द्र मिले फिर ना करे, चकवा, चकवी - त्याग ॥ स्थान एवं समय - संकेत 101 उदय नर्मदा का जहाँ, आम्रकूट की मोर । सर्वोदय का शतक का, उदय हुआ है भोर ॥ 102 गगन-गन्ध-गति - गोत्र की, अक्षय तृतीया पर्व । पूर्ण हुआ शुभ सुखद है, पढ़ें सुनें हम सर्व ॥ 'अङ्कानाम् वामतो गतिः' के अनुसार गगन - 0, गन्ध-2, गति - 5, गोत्र - 2 वैशाख सुदी 3 वी. नि. सं. 2520 (वि.सं. 2051) दिनांक 13.05.1994 शुक्रवार श्री दि. जैन सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक (म.प्र.) आचार्य विद्यासागर वचनामृत प्रयोग सम्यग्दृष्टि को ज्ञान का प्रयोग करने में आनन्द आता है, उसी में वह विश्वास रखता है । पढ़नेवाला होशियार नहीं होता है, अभ्यास करने वाला होशियार होता है । For Private & Personal Use Only 'सर्वोदयशतक' से साभार www.jainelibrary.org

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