Book Title: Jinabhashita 2005 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ साधु की नहीं, अपनी चिन्ता करो मुनि श्री सुधासागर जी साधु की चिन्ता मत करो कि इनका चातुर्मास किस | कुएँ के जल में कोई विकल्प नहीं है, परन्तु वह , तरह से अच्छा बनाना है, बल्कि अपनी चिन्ता करो कि जैसे-जैसे घट में जाएगा उसीतरह उसकी नियति बनेगी। साधु के सान्निध्य से हमें अपने जीवन को कैसे बदलना है। | मंगलकलश में गया तो वह पवित्र जल कहलाएगा, गटर में साढ़े तीन महीने तक निरन्तर श्रमणसंस्कृति के उन्नायक | गया तो दूषित बनकर घृणा को पाएगा। इसीतरह संत समागम और वीतरागता के साक्षात् स्वरूप संतों का एक जगह नित्य | धर्म की गंगा समान है, जो जितना और जैसा हासिल करना संत समागम का अपूर्व अवसर मिलने के पश्चात् भी यदि | चाहेगा, उसे वैसा ही मिलेगा। घर आई गंगा के बाद भी 'जैनत्व' के पक्षधर और नगर के श्रद्धालु नर-नारी जाग | अपने घट को भरना है या नहीं, यह स्वयं को ही तय करना नहीं सके, तो यह उन्हीं का दुर्भाग्य है। जो जागेगा, वही पड़ेगा। गंगा के घाटनुमा संतसमागम में आने पर आत्मा के पाएगा, यह शाश्वत सत्य है। जो संसार की चिन्ता छोड़ कल्याण का मार्ग मिलेगा, यह निश्चित है, परन्तु यह अपनी-- अपनी आत्मा का पूजारी बनने की मंजिल पर चल पड़ा,फिर | अपनी प्रवृति और प्रकृति पर निर्भर है कि उन्हें कितना पाना उसका कल्याण निश्चित है। है, किधर चलना है। जो धर्म की गंगा में डूब गया, उसका किसी नगर में साधु का चातुर्मास होने पर साधु का | मोक्षमार्ग असंभव नहीं है । दुर्भाग्य जागता है, किन्तु श्रावकों (भक्त) का उससे सौभाग्य | श्रमणसंस्कृति के मार्ग पर चलने वाले आज भी काँटों प्रकट होता है। दिगम्बर जैन साधुओं को जिनवाणी माता | | में चलकर आनंद को पा रहे हैं। श्रमणसंस्कृति की पवित्रता, का यह आदेश है कि वह इस पंचमकाल में किसी जैन | आदर्शरूपता आज भी संसार को सुवासित कर रही है। मंदिर में जाकर चातुर्मास करे, जिससे श्रावकों की बिगड़ती | जैनसिद्धांत इस पंचमकाल में भी अपनी दृढ़ता पर कायम दृष्टि और पथभ्रष्ट होती राह को सही दिशा देकर उनको | है। जैनसिद्धांत भौतिकता की अंधी दौड़ के पीछे नहीं है। न अपनी दशा सुधारने का अवसर दिया जा सके। माँ जिनवाणी | यह युग के अनुसार परिवर्तित होता है, बल्कि काल को उपदेश नहीं, बल्कि आदेश देती है और उसका पालन जैनदर्शन के अनुसार चलना पड़ता है। करना प्रत्येक साधु संत का कर्तव्य है। उसी आदेश की | इसका साक्षात प्रतीक व ज्वलन्त प्रमाण वे दिगम्बर परम्परा से पूरे देश में जैन साधु-संत इंसानों की बस्ती में | साधु हैं, जो श्रमणसंस्कृति का ध्वज लिए और कुन्दकुन्द की जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति का गुणगान करने के लिए चातुर्मास परम्परा का जयघोष करते हए इस भारतभमि पर आज भी पर आते हैं। महावीर की वीतरागमुद्रा में पैदल घूम रहे हैं। यही कारण है कि डगर-डगर और नगर से लेकर | दिगम्बरमुनिव्रतधारण करना कोई सहज नहीं है, परन्तु भारत ढाणी-ढाणी तक पैदल निर्भय होकर घूमने वाले जैन साधु- | की पावन भूमि का यह अहो भाग्य है कि श्रमणसंस्कृति की संत को चातुर्मास काल के लिए साढ़े तीन महीने तक एक पवित्र परम्परा निरन्तर बढ़ रही है और यह श्रमणसंस्कृति न स्थान पर ही गुजारने पड़ते हैं और यही उनका दुर्भाग्य | कभी झुक पाएगी, न कभी मिट पाएगी। संकट व विपत्तियाँ बनता है, परन्तु श्रावकों के लिए साधु का चातुर्मास काल | आने के बाद भी मुनिधर्म सिंह के समान आज भी महावीर सौभाग्य का प्रतीक बनता है। वर्षाकाल में जीव-जन्तुओं की ध्वजा लहरा रहा है। यह ध्यान रहे कि मनि का मार्ग की बहुत अधिक उत्पत्ति होती है, जिनके प्रति दया, करुणा | साधना का है और गहस्थ का उपासना का, अतः साधना के और अहिंसा की भावना को दृष्टि में रखते हुए ही साधु- | मार्ग पर बढ़ रहे साधु-संतों के चातुर्मास से अपना जीवन संत वर्ष में एक बार वर्षाकाल में चातुर्मास करते हैं। चातुर्मास | सुधारें। अपनी चिन्ता करें कि मैं कहाँ हूँ ? में यह न सोचें कि महाराज का चातुर्मास अच्छा बनाना है 'अमृतवाणी ' से साभार बल्कि त्याग, तपस्या और अहिंसा भावना में हम कितने आगे बढ़ पाएँगे, इस पर सोचना है। 4 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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