________________
मानना उचित नहीं है ।
प्रश्न: क्या आप ऐसा उदाहरण बता सकते हैं कि विषय एक ही हो तब भी भिन्न-भिन्न भूमिका में नाम भिन्न-भिन्न हों। चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग मानने में क्या बाधा है ?
उत्तर : दिगम्बर सम्प्रदाय में सवस्त्र अवस्था में शुद्धोपयोग नहीं माना है । १५ प्रमाण ऊपर दिए हुए हैं।
उदाहरण : जैसे मोनिका नाम की एक बालिका है। वह अविवाहित अवस्था में अपने माता-पिता के घर पर, माता-पिता के लिए कन्या है, बेटी है, पालिता है तथा लाड़प्यार से पोषित एवं पराया धन है। वह पिता के घर पर बेटी ही मानी जाती है । यहाँ पर मोनिका के भी हाव-भाव, बोलचाल हंसी-मजाक, व्यवहार एक पुत्री - सदृश ही होते हैं । जबकि इसी मोनिका का विवाह होने पर ससुराल में यह बेटी नहीं,बल्कि बहू मानी जाती है तथा पति की सबसे बड़ी अहमियत, कामिनी मानी जाती है । वहाँ मोनिका के हाव भाव, बोलचाल, हंसी-मजाक, व्यवहार आदि बहू जैसे ही होते हैं। इसप्रकार जैसे यहाँ पर एक ही मोनिका भिन्न-भिन्न
गृहों में भिन्न-भिन्न रूप बेटीपना तथा बहूपना को प्राप्त होती है । वह सतर्क, साधार तथा सटीक है। उसीप्रकार चाहे चौथे एवं सातवें में विषयभूत वस्तु एक ही होवे, परन्तु भिन्नभिन्न भूमिका में संयम - घातक कषायों के सद्भाव व अभाव के कारण वे उपयोग क्रमशः शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग कहलाता है । मात्र अनन्तानुबंधी के अभाव से शुद्धोपयोग नहीं होता। शुद्धोपयोग चारित्र-गुण की निर्मल पर्याय है, अतः वह अप्रमत्तसंयम के पहले नहीं हो सकती। अप्रमत्त संयत के ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में होता है। चौथे गुणस्थान में मतिज्ञान जघन्य शुद्धोपयोग होता है, तथा पूर्ण या उत्कृष्ट शुद्धोपयोग द्वारा जो आत्मा विषय होती है, उसके फलस्वरूप जो आत्मा का ज्ञान होता है, वह ज्ञान है; चारित्र - गुण की निर्मल परिणतिरूप शुद्धोपयोग नहीं ।
Jain Education International
उपसंहार : चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग कदापि नहीं होता, जो कि चारित्र - गुण की निर्मल परिणतिरूप है। चौथे में तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा सम्यक्त्त्वाचरण चारित्र ही होते हैं, शुद्धोपयोग या स्वरूपाचरण चारित्र त्रिकाल असंभव है। 'जैन गजट', २९ जुलाई १९९९ से साभार
पृथ्वी का घूमना वास्तुशास्त्र को निरर्थक सिद्ध करता है
डॉ. धन्नालाल जैन
वास्तु-शास्त्र आधुनिक विज्ञान की खोजों के परिप्रेक्ष्य | है, जिसे दिनास्त ( भ्रमणवश सूर्यास्त कहा जाता है) माना में एक भ्रमित - शास्त्र सिद्ध होता है। वास्तु-शास्त्र के अनुसार जाता है और उस दिशा को पश्चिम दिशा मान लिया गया । निर्माण, दिशाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए पर, दिशाएं ये सब काल्पनिक हैं । तो स्वयं काल्पनिक हैं । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाएं तथा अग्नि- कोण (पूर्व और दक्षिण दिशाओं का मध्य भाग), नैऋत्य-कोण (दक्षिण और पश्चिम दिशाओं का मध्य भाग), वायव्य कोण (पश्चिम और उत्तर दिशाओं IIT मध्य भाग), ईशान कोण (उत्तर और पूर्व दिशाओं का मध्य भाग),क्षितिज अक्षांश-देशांतर रेखाएं आदि का ब्रह्मांड में कहीं भी अस्तित्त्व नहीं है। पृथ्वी लगभग गोल है, गोलआकृति पर किसी भी दिशा आदि का अस्तित्त्व संभव नहीं है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, घूमते हुए पृथ्वी जब स्थिर सूर्य के समक्ष आती है तो दिनोदय (भ्रमणवश सूर्योदय कहा जाता है) होता है और दिनोदय की दिशा को पूर्व-दिशा मान लिया गया, ठीक इसीप्रकार पृथ्वी जब अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य से विमुख हो जाती है तो अंधेरा छाने लगता
पृथ्वी घूम रही है अतः पृथ्वी पर निर्मित भवन आदि भी घूम रहे हैं। पृथ्वी एक मिली सेकंड ( एक सेकंड का हजारवां भाग ) में लगभग १४८ मीटर घूम जाती है अर्थात् एक सेकंड में १,४८,००० मीटर पृथ्वी अपने स्थान से अपनी ही धुरी पर आगे बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर हुए निर्माण-कार्य भी घूम जाते हैं और लगभग १२ घंटे में पूर्वदिशा (काल्पनिक ) का निर्माण कार्य पश्चिम दिशा (काल्पनिक) मुखी हो जाता है। जो वास्तु-शास्त्री कहते हैं कि निर्माण कार्य इसी दिशा विशेष में होना चाहिए। वे यह बताएं कि जब पृथ्वी घूम रही है और एक मिली सेकंड में भी निर्माण कार्य दिशा विशेष में स्थिर नहीं है तो उस वास्तुशास्त्र का क्या उपयोग है?
For Private & Personal Use Only
८६, तिलकपथ, इंदौर
• अक्टूबर 2005 जिनभाषित 9
www.jainelibrary.org