Book Title: Jinabhashita 2005 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ हमलोगों को उपर्युक्त वर्णित विषयों पर गहन चिन्तन करना होगा। महासभा, महासमितियाँ, संगठन, बुद्धिजीवी वर्ग इस विषय पर मानस तैयार करें, तथा पूज्य आचार्यों के सान्निध्य में संगोष्ठी कर चर्चा करें फिर निर्णय देवें। यही हमारी विनती है। निवेदक maoranas) (भागचन्द छाबड़ा) अध्यक्ष सम्पादकीय टिप्पणी: आपकी चिन्ता उचित है और उपर्युक्त प्रकार का आचरण करनेवाले कुमुनियों को मुनि न मानने की आपकी दृष्टि आगमानुकूल है। आचार्य कुन्दकुन्द का आदेश है, 'असंजदं ण वन्दे।' ऐसे कुमुनियों की वन्दना न की जाय, यही उनकी बाढ को रोकने का एकमात्र उपाय है। रतनचन्द्र जैन श्री १००८ भगवान् संभवनाथ जी जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र की श्रावस्ती नगरी में महाराजा दृढ़ राज्य करते थे। सुषेणा उनकी महारानी का नाम था। कार्तिक शुक्ल पूर्णमासी के दिन उस महारानी ने प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् अजितनाथ के मुक्त हो जाने के अनन्तर जब तीस लाख करोड़ सागर का समय बीत चुका तब संभवनाथ भगवान् का जन्म हुआ। साठ लाख पूर्व की उनकी आयु थी, चार सौ धनुष ऊँचा शरीर था। जब उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्हें राज्य पद प्राप्त हुआ। इसप्रकार सखोपभोग करते हए जब चवालीस लाख पर्व और चार पर्वांग व्यतीत हो चके तब किसी एक दिन प्रभ अपने महल की छत पर बैठे हुए थे। तभी आसमान में दिखाई देने वाले मेघ एकाएक न जाने कहाँ विलीन हो गये। विनष्ट होते इस दृश्य को देखकर आत्म-ज्ञान प्रकट होते ही वे उसी समय विरक्त हो गये। भगवान् ने अपने पुत्र को राज्य देकर मगसिर शुक्ला पन्द्रस को सहेतुक वन में सांयकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। पारणा के दिन भगवान् ने श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया। वहाँ सुरेन्द्रदत्त नामक राजा ने आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तपश्चरण करते हुए चौदह वर्ष तक भगवान् छद्मस्थ अवस्था में रहे। तदनन्तर अपने ही दीक्षावन में पहुँचकर शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए और घातिया कर्मों का नाशकर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुए। भगवान् के समवशरण की रचना हुई। जिसमें दो लाख मुनि, तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इसप्रकार दिव्य धर्मोपदेश देते हुए भगवान् ने समस्त आर्य देशों में विहार किया। अन्त में जब आयु का एक माह अवशिष्ट रह गया तब सम्मेदाचल पहुँचकर उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया। तदनन्तर चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन प्रात:काल के समय एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया। 'शलाका पुरुष' (मुनि श्री समतासागर जी) से साभार 28 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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