Book Title: Jinabhashita 2005 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ दुक्ख-खयो, कम्म-खओ, समाहिमरणंच बोहिलाहो य।। दृष्टि विकार के तिमिर को छेदने के लिये अनेकान्त मम होउ तिजग बंधव । तव जिणवर चरण-शरणेण ॥ | पैनी-छैनी है । दृष्टि विकार के पश्चात् मोहभाव को दूर हे त्रिजगत के बन्धु जिनदेव! आपके चरण शरण के | करना चाहिए । यही अन्तरंग परिग्रह है । अन्तरंग परिग्रह प्रसाद से मेरे दु:खों व कर्मों का क्षय, समाधिपूर्वक मरण का पोषण बाह्य परिग्रह है। जिससे रागादिक की उत्पत्ति और बोधिका - सम्यग्दर्शनादि का लाभ होवे । | होती है इन सब के प्रतिकार के लिए एकदेश या सर्वदेश परिग्रह त्याग आवश्यक है । मुनिलिंग धारण बिना परिग्रह स्वयम्भूस्तोत्र में प्रार्थना के विविध अंलकृत रूपों त्याग नहीं बनता। अतः त्याग ही तृष्णा नदी को सुखाने के को देखें: लिए ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान है । इन सभी प्रसंगों का (1) पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (2) जिनः श्रियं मे वर्णन युक्तियुक्त ढंग से इस स्तोत्र में किया गया है । भगवान विद्यत्ताम (3) ममाऽऽर्य देयाः शिवताति मुच्चैः (4) पूयात्पवित्रो भगवान मनो मे। (4) युक्तत्यनुशासन : यद्यपि ग्रन्थ के आदि और अन्त के पद्यों में इस नाम का कोई उल्लेख नहीं है । ये सभी प्रार्थनाएं चित्त को पवित्र करने, आत्मविकास टीकाकार श्री विद्यानन्दाचार्य ने बहुत स्पष्ट शब्दों में और आत्मोत्कर्ष के लिए की गई हैं । युक्त्यनुशासन नाम का स्तोत्र ग्रन्थ उदघोषित किया । यह ज्ञानयोग : इसके अन्तर्गत स्तोत्र में ममत्त्व से विरक्त | परीक्षा प्रधान ग्रन्थ है । समन्तभद्र स्वयं परीक्षा प्रधानी थे होना, बन्ध मोक्ष, दोनों के कारण बद्ध, मुक्त और मुक्तिका | और हर किसी के सामने अपना मस्तक नहीं टेकते थे । फल आदि की व्यवस्था स्याद्वादी, अनेकान्त दृष्टि के साथ | उन्होंने श्री वीर जिनेश को इसीलिए नमस्कार नहीं किया की गई है । समाधि की सिद्धि निर्ग्रन्थ गुण से होती है, जो | कि वे बिना विमान के आकाश में गमन करते थे या अष्ट बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से ही सम्भव है ।। प्रातिहार्य रूप विभूतियां उनके समवशरण : आसक्ति से तृष्णा की अभिवृद्धि और इन्द्रिय विषय के | क्योंकि एक इन्द्रजाली या मायावी में भी ये गुण विद्यमान हो अधिकाधिक सेवन से तृप्ति न होकर तृष्णा की वृद्धि होती | सकते हैं। आपकी महानता थी कि आपने मोहनीय कर्म के है। स्याद्वाद और अनेकान्त के द्वारा वस्तु व्यवस्था का सांगोपांग | अभाव रूप अनुपम सुख शान्ति, ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी वर्णन आदि ज्ञान योग के अन्तर्गत है। कर्मों का नाशकर अनन्तदर्शन और केवलज्ञान का उदय कर्मयोग : इसका चरम लक्ष्य है आत्मा का पूर्ण किया तथा अन्तराय कर्म के विनाश से अनन्तवीर्य रूप विकास अर्थात् ब्रह्मपद प्राप्ति । कर्म मल को दूर करने के | शक्ति को प्राप्त होकर मोक्षमार्ग के नेता बने । लिए, योग ध्यान और समाधि रूप प्रशस्त तप की अग्नि से इस स्तोत्र में शद्धि और शक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त इसे स्वाहा किया जा सकता है । हए श्री वीर जिनेन्द्र के अनेकान्तात्मक और स्याद्वाद मत को स्व दोष मूलं स्व समाधि-तेजसा, पर्णता: निर्दोष एवं अद्वितीय माना । निनाय यो निर्दय भस्म सात्क्रियाम ॥4॥ इस प्रकार समन्तभद्र स्वामी के उक्त चार ग्रन्थ-स्तुति यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्नि, परक हैं जिनकी प्रमुख विशेषताओं का, अति संक्षेप में ध्यानमनन्तं दुरितमधाक्षीत ॥ 110॥ प्रस्तुत आलेख में वर्णन किया गया है। अर्थात् शुक्ल ध्यानरुपी अग्नि से कर्ममल को जलाया जवाहर वार्ड, बीना (म.प्र.) जाता है। *वीर देशना जिस प्रकार अंधे के आगे नाचना, बहरे के आगे गाना, व्यर्थ होता है और कौवे को शुद्ध करना, मृतक को भोजन करवाना, नपुंसक का स्त्री पाना व्यर्थ होता है, उसी प्रकार मुर्ख के लिए दिया गया सुखकर रत्न भी व्यर्थ होता है। Just as it is futile to dance in front of a blind man, sing before a deaf one, purify a crow, feed a carcass and talking of a woman by an eunuch, similarly, it is useless to offer a comforting jewel to an idiot. __ मुनिश्री अजितसागर जी 12 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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