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आस्रव विधि से द्रव्य रूप पुद्गल परमाणु आत्मा में प्रवेश करते हैं । यदि मन-वचन-काय की क्रियाएं शुभ हैं, तो शुभ कर्म और यदि अशुभ हैं, तो अशुभ कर्म होते हैं। शुभकर्म, पुण्य प्रकृति रूप और अशुभ कर्म, पाप प्रकृतिरूप होती है। शुभाशुभ भावों की तरतमता कषायादि परिणामों
तीव्रता या मन्दता के कारण, इन कर्म प्रकृतियों में उलटफेर या संक्रमण होता रहता है। वीतराग भगवान् की उपासना के समय, उनके पुण्य गुणों का स्मरण करने से शुभ भावों की उत्पत्ति होती है, जिससे पाप परिणति छूटती है और उसका स्थान पुण्य परिणति ले लेती है । अतः पुण्य प्रकृतियों का रस बढ़ता है और पाप प्रकृतियों का रस सूखने लगता है। अन्तरायकर्म, जो एक पृथक मूल पाप प्रकृति रूप है, हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यरूप शक्ति-बल में विघ्न करता है, वह कमजोर पड़ जाता है, जिससे इष्ट कार्य में बाधा समाप्त होकर, बिगड़े कार्य भी सुधर जाते हैं, तथा हमारे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । अतः स्तुति या वन्दनादिक धर्म कार्य, इष्ट फलदाता होते हैं। इसी अभिप्राय को तत्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य ने कहा है
ष्टं विहन्तुं शुभ भाव-भग्न, रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थ कदाऽर्ह दादेः ।
3. स्वयम्भूस्तोत्र : यह स्तोत्र स्वयम्भू शब्द से प्रारम्भ होता है । इसमें स्वयम्भू - पद को प्राप्त 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई है । स्वयम्भू का मतलब है जो अनन्तचतुष्टय रूप आत्म विकास को प्राप्त होकर मोक्षमार्ग प्रणेता बनकर उसे प्राप्त किया है । इसका दूसरा नाम 'समन्तभद्र स्तोत्र' भी पाया जाता है । स्वयम्भूस्तोत्र के अन्तिम पद में 'समन्तभद्र' पद प्रयुक्त हुआ है। अतः इसका अपर नाम भी प्रचलित है । यह समन्तभद्र की अपूर्व रचना है । इसके पदों को सूक्तार्थ, अमल, स्वल्प आदि विशेषण देखकर वे सूक्तरूप से ठीक अर्थ का प्रतिपादन करने वाले हैं, अल्पाक्षर हैं और प्रसादगुण-विशिष्ट हैं । इस ग्रन्थ में भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग की त्रिवेणी बहाई है, जिसमें अवगाहन से सुख शान्ति का लाभ होता है ।
इसकी प्रभावोत्पादकता से अनुरक्त होकर मैंने दो वर्ष पूर्व अतुकान्त छंदों में हिन्दी पद्यानुवाद किया था, जिसका चन्द्रप्रभ जिनस्तवन का उदाहरण देखें :
चन्द्रकिरण सम, गौरवर्णमय इस जग के तुम द्वितीय चन्द्र हो ।
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गणधरादि ऋषियों के स्वामी, इन्द्रों द्वारा अर्चनीय हो । दुष्कृत भाव दलन कर, कषायिक बन्धन से उपरत,
चन्द्रकान्ति से परम मनोहर-अष्टम तीर्थंकर जिनस्वामी चन्द्रप्रभु तुमको प्रणमामि ।। 36 ॥
इसी प्रकार शान्ति जिनस्तवन की एक झलक देखें: प्रशस्त पंचकल्याणक की परम्परा से सहित महोदय, रिपु जिससे भयभीत - सुदर्शन चक्र धरें वे । राजाओं के परिमण्डल पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती का महासुयश पद पाया ।
फिर समाधिचक्र से - दुर्जय सबल मोह कर्मों की, सभी प्रकृतियां क्षार क्षार कर, अरिहन्त परम पद पाया।
स्वामी समन्तभद्र ने अपने इस स्तोत्र में तीर्थंकर अर्हन्त के लिए, जिन विशेषण पदों का प्रयोग किया है, उनसे अर्हत्स्वरूप पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । 144 पदों में ऐसे लगभग 175 विशेषणों का उपयोग किया गया है । इन समस्त विशेषणों को आठ समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है । जो वस्तुतः अर्हन्तों के नाम हैं- वे हैं 1. कर्मकलंक विजय सूचक (2) ज्ञानादि गुणोत्कर्ष व्यंजक (3) पर हित प्रतिपादन-लोक हितैषिता मूलक ( 4 ) पूज्यताऽभिव्यंजक (5) शासनमहत्ता के प्रदर्शक ( 6 ) शारीरिक स्थिति और अभ्युदय मूलक ( 7 ) साधना की प्रधानता प्रकाशक और (8) मिश्रित गुणवाचक । इस स्तोत्र को भक्ति, ज्ञान और कर्म योग से यदि अध्ययन करें तो इसकी अनेक विशेषताएँ प्रकट होती हैं :
भक्तियोग के अन्तर्गत, यह कारिका दृष्टव्य है :
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे,
न निन्दया नाथः विवान्त-वैरे । तथाऽपि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः, पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ 57 ॥ जिनकी आत्मा में राग का एक अंश भी विद्यमान नहीं रहा, वे पूजा, भक्ति या स्तुति से प्रसन्न नहीं होते, और न ही प्रसन्न होकर भक्त के पापों को दूर ही करते हैं । उनके पाप तो आपके पुण्य-गुणों के स्मरण मात्र से दूर भाग जाते हैं। जैनदर्शन में की गई प्रार्थना आत्मोत्कर्ष की भावना का एक विशद रूप है :
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'अक्टूबर 2005 जिनभाषित 11
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