Book Title: Jinabhashita 2005 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ गतांक से आगे 'आचार्य समन्तभद्र और उनकी स्तुतिपरक रचनाएँ समन्तभद्र का समय 40 डॉ. के. बी. पाठक के अनुसार स्वामी समन्तभद्र ईसा की आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए। जबकि जैनसमाज में उनका समय आमतौर पर दूसरी शताब्दी माना जाता है । पुरातत्त्व के कई विद्वानों ने इसका समर्थन भी किया है । स्वामी समन्तभद्र की स्तुति परक रचनाएं अर्हद्भक्ति के लिए समन्तभद्र की स्तुतिपरक प्रमुख चार रचनाएं हैं, जिनमें जैन सिद्धांत का सार गुम्फित है । 1. देवागम स्तोत्र 2. जिनस्तुतिशतकं 3. स्वयम्भू स्तोत्र और 4. युक्त्यनुशासन । 1. देवागम स्तोत्र : 'आप्त मीमांसा' के नाम से विख्यात आपका यह सबसे प्रधान ग्रन्थ है । देवागम शब्द से प्रारम्भ होने के कारण यह देवागम स्तोत्र कहलाया । जिस प्रकार-कल्याण मंदिर स्तोत्र या भक्तामर स्तोत्र हैं, जो इन शब्दों से ही शुरू होते हैं । इस स्तोत्र में अर्हन्तदेव का आगम व्यक्त हुआ है । इस स्तोत्र में श्लोकों की संख्या 114 इस ग्रन्थ पर भट्टाकलंकदेव ने अष्टशती के नाम से तथा श्री विद्यानन्दाचार्य ने अष्टसहस्री नाम से बड़ी टीका लिखी है । इतनी विशाल एवं समर्थ टीका-टिप्पणियों के बाद भी देवागम विद्वानों के लिए दुरूह और दुर्बोधसा बना हुआ है । निश्चित I 114 श्लोकों के लघु ग्रन्थ रूपी कूप में सम्पूर्ण मतमतान्तरों के रहस्य रूपी समुद्र को भर दिया है। अतः गहरे अध्ययन, मनन और विस्तीर्ण हृदय की विशेष आवश्यकता है । 2. जिन स्तुति शतकं: इस ग्रन्थ का मूल नाम स्तुति विद्या है । इसके आदि मंगल पद्य में 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये' इस प्रतिज्ञा वास से इसका नाम 'स्तुति विद्या' प्रसिद्ध है । इसकी छह आरों और नववलयों वाली चित्र रचना पर से ग्रन्थ का नाम 'जिनस्तुति शतं' निकलता है । चूंकि शत और शतक एकार्थक हैं अतः यह 'जिनस्तुति शतकं ' भी कहा जाता है । जिसका बाद में संक्षिप्त रूप 'जिन शतक' हो गया। इसमें वृषभादि चौबीस जैन तीर्थंकरों की अलंकृत भाषा में बड़ी कलात्मक स्तुति की गई है । कहीं श्लोक के एक चरण को उलटकर रख देने से दूसरा चरण, कहीं पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्ध और कोई समूचे श्लोक को उलटकर रख देने से दूसरा अमला श्लोक बन 10 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International प्राचार्य पं. निहालचन्द्र जैन जाता है । श्लोक नं. 10,83, 88 और 95 में एक चरण उलटकर रख देने से दूसरा चरण बन जाता है । इसी प्रकार 57, 96 और 98 में पूर्वार्ध पलट देने से उत्तरार्ध बन जाता है- उदाहरण देखें रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः । भो विभोनशनाजोरु नम्रेन विजरामय ॥ ८६ ॥ यमराज विनम्रेन रुजोनाशन भो विभो । तनु चारु रुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥ ८७ ॥ इस प्रकार अनेक प्रकार से शब्दों के अतिशय सम्पूर्ण स्तोत्र में समाहित हैं । शब्दालंकार और चित्रालंकार के अनेक भेद प्रभेदों से सम्पूर्ण कृति अलंकृत है। 'समस्तगुण गणोपेता, सर्वालंकार भूषितां' सचमुच यह ग्रन्थ अपूर्व काव्य कौशल, अदभुत व्याकरण- पाण्डित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करता है । जो योगियों के लिए भी दुर्गम है । इस कृति को 'सदगुणाधार' यानी उत्तमगुणों की आधार भूमि बतलाते हुए 'सुपद्यिवनी' भी संज्ञित है । ग्रन्थ में सुन्दरता का सूचन पद-पद पर लक्षित है। उद्देश्य : ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य 'आगसां जये यानी पापों को जीतना बतलाया है । जिनस्तुति से पाप कैसे जीते जाते हैं, यह रहस्य का विषय है । समस्त तीर्थंकर पाप विजेता, अज्ञान, मोह तथा काम-क्रोधादि पाप प्रवृत्ति/प्रकृतियों पर उन्होंने पूर्णत: विजय प्राप्त की है, अतः आपको हृदय मंदिर में प्रतिष्ठित करने से पापों के दृढ़ बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते हैं, जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर मोर आने से, उससे लिपटे हुए सांप ढीले पड़कर भय से भाग जाते हैं। अथवा शुद्ध स्वरूप के सामने आते ही, अपनी भूली हुई निधि का स्मरण हो उठता है और उसकी प्राप्ति के लिए वह कटिबद्ध हो जाता है । भक्तियोग का यह माहात्म्य होता है कि जब प्रकाशित दीपक की उपासना करते हुए समर्पित मस्तक झुकता है तो वह स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठता है । स्तुतिकर्ता, स्तुत्य के गुणों की अनुभूति करता हुआ उसमें अनुरागी होकर, उन आत्मीय गुणों को अपने में विकसित करने की शुद्ध भावना करता है । कर्मसिद्धांत से स्तुति के फल को स्पष्ट कर सकते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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