Book Title: Jinabhashita 2005 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ की प्राप्ति होती है। इन स्तोत्रों के मूल में "वन्दे तद्गुणलब्धये" की भावना पूरे जोश के साथ विद्यमान है। तीर्थंकर वीतरागी होते हैं अत: वे राग और द्वेष से प्रयोजन नहीं रखते लेकिन उनका स्मरण ही भय या दुःख निवारण में समर्थ है, त्वन्नाम मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः । सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥ (भक्तामर स्तोत्र-४६) अर्थात् हे भगवन् ! मनुष्य आपके नाम रूपी मंत्र का निरन्तर स्मरण करते हुए शीघ्र ही अपने आप बन्धन के भय से रहित हो जाते हैं। जैनस्तोत्रों की रचना का प्रमुख हेतु स्वान्तः सुखाय एवं आत्मकल्याण रहा है। रत्नत्रय की प्राप्ति की भावना से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र तथा इनके धारकों का गुणगान आवश्यक माना गया। जैनस्तोत्रकारों के लिए 'जिन' शब्द अत्यधिक प्रिय रहा है। क्योंकि यह जितेन्द्रियता, जिन्होंने चार घातिया कर्मों को जीत लिया है ऐसे अर्हन्त भगवान् का सूचक रहा है। जिनभक्ति में शक्ति की नहीं भावों की प्रधानता होती है। बड़े-बड़े योद्धा, बलवान व्यक्ति जो कार्य नहीं कर पाते वह जिनभक्ति पूर्ण कर देती है। आचार्य मानतुंग स्वामी कहते हैं कि : सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तुंस्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृतः। प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशो: परिपालनाथ ॥५॥ अर्थात् आपकी भक्ति के वशीभूत शक्ति रहित भी मैं स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। हिरणी प्रीति से 1) अपनी शक्ति को बिना विचारे अपने बच्चे की रक्षा के लिए क्या सिंह के सामने नहीं आती है अर्थात् अवश्य आती है। भक्ति का रस शान्त माना गया है। जैन उपासना पद्धति भी शान्त भावों से की जाती है। जिसमें मन, वचन, काय की एकता अर्थात् मानसिक, वाचनिक एवं कायिक शान्ति को प्रमुखता दी जाती है ताकि अन्तिम उद्देश्य कार्य की शान्ति(सिद्धि)संभव हो सके। भक्ति में यदि कहीं सांसारिक दुःखों का वर्णन भी किया गया है तो उसका लक्ष्य यह नहीं है कि व्यक्ति दुःखी हों बल्कि लक्ष्य यह है कि व्यक्ति दुःखों से मुक्ति का उपाय सोचे, उपाय करे और दुःखों से मुक्त हो। संसार के प्रति अरूचि उत्पन्न कर वैराग भाव जगाना ही इष्ट रहा है। इस तरह जैन उपासना का प्रथम लक्ष्य सांसारिक सुख एवं अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। इस हेतु भक्त भगवान् का दर्शन, वंदन, पूजन,शास्त्र एवं गुरुओं की यथाविधि भक्ति, आहार आदि दान, एकाशन, उपवास, ध्यान, सामायिक,तीर्थयात्रा, जप-तप-त्याग आदि सद्प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होकर अपने जीवन को सफल बनाता है। जो कुदेव, कुशास्त्र एवं कुगुरुओं की उपासना एवं भक्ति में अपना चित्त लगाता है वह निश्चित ही अपना संसार बढ़ाता है। अतः हमें उपासना के क्षेत्र में इसप्रकार की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। आज हमारे सामने निमित्तभूत जिनबिम्ब हैं, जिनेश्वर के लघुनंदन स्वरूप दिगम्बर मुनिराज गुरु के रूप में विद्यमान हैं, वीतराग प्रणीत जिनशास्त्र भी विद्यमान हैं और अनुभव जो आत्मा से किया जाये तथा हित की कसौटी पर कसकर किया जाये सो वह भी है। अतः क्यों न हम उपासना करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखें कि हम जो करें अच्छे के लिये करें और जो हो वह अच्छे के लिये हो। इसी में प्रत्येक जैन धर्मानुयायी और जैनत्व का भविष्य सुरक्षित है। जैनं जयतु शासनम्। एल-६५, इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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