Book Title: Jinabhashita 2005 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ की उत्थानिका में जिन ग्रन्थों के आधार पर ग्रंथ बनाने की तदुपरांत अकलंक प्रतिष्ठा पाठ का नंबर आता है। प्रतिज्ञा की है उनमें विद्यानुवाद का भी नाम है। वह विद्यानुवाद | इसका निर्माण ब्रह्मसूरि के बाद में हुआ है। संभवतः यही हो सकता है। एक जिनसेन त्रिवर्णाचार भी है वह सोमसेन त्रिवर्णाचार भावशर्मा ने अभिषेक पाठ की टीका विक्रम सं. | के बाद उसकी छाया लेकर बना है। १५६० में बनाई। ऐसा राजस्थानग्रंथसूची, द्वितीय भाग के | इसतरह त्रिवर्णाचारों और प्रतिष्ठापाठों के रचे जाने । पष्ठ १४ में लिखा है। इस टीका में भावशर्मा ने का यह इतिहास है। इससे जाना जा सकता है कि इन वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ का उल्लेख किया है और आमेर शास्त्र | त्रिवर्णाचारों की परम्परा जहाँ से शरू होती है वे पहिले भंडार की सूची के पृष्ठ १९३ में वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ का वैदिक ब्राह्मण थे बाद में जैन होकर उन्होंने क्रियाकाडी लिपिकाल सं. १५१७ दिया है। यह लिपिकाल यदि सही | साहित्य की रचना की। पूर्वसंस्कार और परिस्थितिवश उनको हो, तो इस वसुनंदि का समय भी अनुमानतः १५वीं सदी | उसमें कितना ही कथन ब्राह्मणधर्म जैसा करना पड़ा है। यह माना जा सकता है। वसुनंदि प्रतिष्ठापाठ में कितने ही पद्य परंपरा आज से कोई सात सौ वर्ष पहिले से चालू हुई है । आशाधर प्रतिष्ठापाठ के पाये जाते हैं, इससे वह आशाधर और प्रतिष्ठा ग्रंथों की परंपरा भी प्रायः आशाधर को आधार के बाद का तो स्पष्ट ही है। बनाकर यहीं से शुरू हुई है। इसप्रकार के साहित्य की इसतरह पूजासार, विद्यानुवाद और वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ परम्परा का उद्गम आशाधर और उसके समय के आसइन तीनों का समय करीब-करीब आस-पास का ही जान | पास होने वाले हस्तिमल्ल, इंद्रनन्दि, एकसंधि आदि से हुआ पड़ता है। जान पड़ता है। वामदेव ने भी कोई प्रतिष्ठा ग्रंथ लिखा दिखता है। यहाँ खास ध्यान में रखने की बात यह है कि हमारे अपने इस प्रतिष्ठा पाठ का उल्लेख वामदेव ने अभिषेक | यहाँ इन्द्रनन्दि, वसुनन्दि, माघनन्दि, नेमिचन्द, अकलंक, पाठ की टीका में किया है। (मुद्रित अभिषेक पाठ संग्रह) ।। जिनसेन आदि नाम वाले प्राचीन और प्रामाणिक आचार्य हुये वामदेव का समय अर्यपार्य के आस-पास का, १४वीं शताब्दी हैं। वैसे ही नाम वाले अर्वाचीन ग्रंथकार भी हुये हैं। अतः नामसाम्य के चक्कर में पड़कर उनको एक ही नहीं समझ कुमुदचंद्र कृत 'प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण' नामक ग्रन्थ भी लेना चाहिये। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि एक ही नाम सुना जाता है, जिसके कुछ उद्धरण हमारे देखने में आये. | और एक ही समय में होकर भी व्यक्ति भिन्न-भिन्न रहे हैं, , उससे ज्ञात होता है कि वह इंद्रनंदि संहिता की नकलमात्र है। जैसे आदिपुराण और हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन। इसतरह ब्रह्मसूरि ने प्रतिष्ठाग्रंथ ही नहीं त्रिवर्णाचार ग्रंथ भी | से अन्य भी ग्रंथकार हो सकते हैं। लिखा है। सोमसेन के त्रिवर्णाचार में कितना ही वर्णन ब्रह्मसूरि | जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर से प्रकाशित भट्टारक के उल्लेख से किया गया है। वास्तव में वह वर्णन ज्यों का । सम्प्रदाय' पुस्तक के पृ. २५२ पर पट्टावली का लेख छपा है त्यों इन्द्रनन्दि संहिता में पाया जाता है। इससे जान पड़ता है जिसमें लिखा है कि, 'पद्मसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन ने कुछ ब्रह्मसूरि ने इन्द्रनन्दिसंहिता से लिया और सोमसेन ने ब्रह्मसूरि विद्या के गर्व से उत्सूत्रप्ररूपण करने के कारण आशाधर को के त्रिवर्णाचार से । सोमसेन का समय विक्रम सं. १६६० अपने गच्छ से निकाल दिया तो वह कदाग्रही श्रेणीगच्छ में निश्चित है। चला गया। वह लेख यों है, 'तदन्वये श्रीमत् वाटवर्गट प्रभाव | श्री पद्मसेनदेवानां तस्य शिष्य श्री नरेन्द्र से नदेवैः अलावा इसके एक प्रतिष्ठातिलक नाम का ग्रंथ किंचविद्यागर्वत असूत्रप्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छान्निस्सारितः नेमिचन्द्र कृत है जो छप भी चुका है। उसके देखने से मालूम || होता है कि वह अर्थशः अधिकांश में हबह आशाधर प्रतिष्ठा | कदाग्रहग्रस्तं श्रेणिगच्छमशिश्रियत्।' पाठ की नकल है, भले ही उसके कर्ता ने कहीं आशाधर __ आशाधर कृत प्रतिष्ठा पाठ में कई ऐसे देवी देवताओं का उल्लेख नहीं किया है। इसकी प्रशस्ति से पाया जाता है | के नाम, उनके विचित्र रूप व उनकी आराधना करने का कि ये नेमिचन्द्र भी हस्तिमल्ल के ही वंश में हुए हैं और कथन किया है जिनके नाम तक करणानुयोगी ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। वैसा वर्णन साफ तौर पर कपोल कल्पित नजर रिश्ते में उक्त ब्रह्मसूरि के भानजे लगते हैं। ये गृहस्थ थे। इन्होंने जो प्रशस्ति में अपनी वंशावली दी है उसकी गणनानुसार आता है। सम्भव है आशाधर के ऐसे ही कथनों को लेकर नरेन्द्रसेन ने आशाधर का बहिष्कार किया हो। इति । इनका समय १६वीं शताब्दी हो सकता है। और यही समय ब्रह्मसूरि का भी समझना चाहिये। 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार है। 6 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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