Book Title: Jinabhashita 2004 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ गड़बड़ होगी, कोई श्रावक देगा, तो ले लेंगे। जैसे उमास्वामी महाराज को मिला था गृद्धपिच्छ, उसी प्रकार हमें काम निकालना है, निकाल लेंगे। क्या करें? हम अपनी तरफ से तो नहीं कर सकते, ये तो श्रावकों का कर्तव्य है कि उपकरण दे दें, समय पर । जैसे आहार देते, वैसे उपकरण दे दें। जहाँ से परिग्रह का संग्रह प्रारम्भ हो गया, वहाँ पर न क्षुल्लक पद रहेगा और न श्रमण पद रहेगा। इसलिए उनका पद इन दोनों में कोई नहीं है । तो यह पूजन-अभिषेक और पादप्रक्षालन आदि महत्त्वपूर्ण नहीं। इनके त्याग से भट्टारक पद में कोई भी अवमूल्यन नहीं होगा। इसलिए समयसमय पर विद्वानों ने भी इसके लिए संकेत दिया है। महाराज इस प्रकार नहीं कहा इसका मतलब यह नहीं कि विरोध नहीं किया। उन्होंने अपने ढंग से विधिमूलक बताया। धर्म का संरक्षण करो। धर्म क्या ? पहिचानोगे तभी तो करोगे। ये सारा का सारा जो है न, पंथवाद के माध्यम से चलने लगा। अभी तो हम श्रावक की बात ही नहीं कर रहे हैं, जिनको लिंग दिया गया है, उसकी बात हम करना चाहते हैं । जो क्षुल्लक होता है, वह व्यक्ति 'पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिक: तत्त्व गृह्यः' ये कहा है, समन्तभद्र महाराज की बात सुनो। पैंतीस श्रावकाचार में कहीं भी लिखा हो तो हमें बताओ। क्षुल्लक का पद ऐसा होता है, नहीं है, तो कहाँ से यह आ गया, पैंतीस श्रावकाचार के अलावा। कौन से श्रावक ने लिखा । हाँ, भट्टारकों के बारे में तो हम कह सकते हैं कि भट्टारक पहले थे। लेकिन ऐसे भट्टारक हजारों मुनियों में एकाध होता था, जिसको उपाधि से विभूषित किया जाता था। घोषित किया जाता था और उनकी शरण में रहकर के, छाया में रह करके, श्रमण लोग आनन्द का अनुभव करते थे । इनके माध्यम से हमारा धर्मश्रवण बहुत 1 अच्छा चलेगा। लेकिन उस पद को लेकर वर्तमान के भट्टारकों की दशा, ये बिल्कुल गलत है। एक प्रकार से यूँ कहना चाहिए दिगम्बरत्व को धारण करके अथवा क्षुल्लक पद को धारण करके पुनः भट्टारक पद को धारण करके, इस प्रकार के कार्य में लगने का अर्थ हुआ एक दिगम्बर एवं क्षुल्लक पद का अवमूल्यन, अवमूल्यन ही नहीं नेस्तनाबूद करना है । फिर भी वेष रखना यह उन्मार्ग माना जायेगा। यह मार्ग नहीं उन्मार्ग है। बुरा नहीं मानना, शास्त्र में ऐसा ही उल्लेख किया गया है। फिर भी आचार्यों की बात सुनकर के देखो, महाराज जी ने हमारे लिए कितना अच्छा उपदेश दिया, इसको यदि ब्याज के रूप में लेते हो, Jain Education International 'इति छलं न घेत्तत्त्वं' इतना कहकर विराम लेता हूँ । यदि चूक गया तो छल धारण नहीं करना, यहाँ चूक तो हो ही नहीं रही। 'धर्म का संरक्षण करना' कोई भी क्षेत्र, कोई भी समाज, इसकी रक्षा के लिए कोई भी इस ढंग से पद निर्धारित कर दें, तो धर्मात्म पद तो नहीं माना जा सकता। एक था समय, उस समय में, उन्होंने अपने ढंग से बहुत काम किए हैं। किस रूप में किए हैं, इसकी बात सुनेंगे तो इसका कम वर्णन नहीं बहुत बड़ा वर्णन है। इसको लेकर के इसको पद मान लें और राजमार्ग मान लें। राजमार्ग नहीं अपवाद मार्ग भी वह नहीं है। क्योंकि थोड़ी बहुत कमी है। तो अपवाद मार्ग हो, यह तो बिल्कुल विपरीत मार्ग हो गया। इसको मार्ग के नेता चुनकरके अंधाधुंध जो है कि इसका समर्थन कर रहे हैं। एक प्रकार से जैन समाज के लिए बहुत चिंतनीय विषय है। महाराज इसको कहने का क्या तात्पर्य निकला, चूँकि समाधि के समय पर शांतिसागर जी महाराज इसको संबोधित करके चले गये, इसको लेकर कई लोग इसका अर्थ ये निकाल रहे हैं, महाराज जी ने हमें संबोधित किया हमारा कार्य तो ठीक चल रहा है। 'ऐसे ही धर्म संरक्षण करते रहो' ऐसा नहीं कहा उन्होंने । जो अभी कर रहे हो ऐसा नहीं कहा, किन्तु धर्म संरक्षण करते रहना । धर्म को समझें तभी तो संरक्षण होगा। इस कार्य को इस प्रकार किया जा सकता है। वह क्या है ? जो पीछी रख दें, कमण्डलु रख दें, कहाँ, अपने पास न रखें और पादप्रक्षालन छोड़ दें, अर्घ चढ़वाना छोड़ दें, फिर वहाँ उस मठ के मालिक बन करके, आदर्श रूप धारण करके, समाज का नेतृत्व और उस क्षेत्र का संरक्षण करो, तो पूरा उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक एक हो जायेगा किन्तु क्षुल्लक आप अपने को नहीं कह सकते, यह रूप होना चाहिए। यह महाराज जी का आशय था । हमने इन दोनों पंक्ति को पढ़ करके यह आशय निकाला है। इससे गलत आशय तो हो नहीं सकता। यदि होता है तो सारे के सारे दोष आपके सामने रखे। समन्तभद्र महाराज के रत्नकरण्ड श्रावकाचार को, अष्टपाहुड़ के उस प्रकरण को दूषित किया जा रहा है, यह कहने में कोई भी बाधा नहीं आती। समन्तभद्र स्वामी और कुन्दकुन्द स्वामी ये दोनों शिरोमणि आचार्य हैं और समाज को नेतृत्व देकर के गये । उनकी कृपा एवं लेखनी से यह साहित्य का निर्माण हुआ । इसका संरक्षण करेंगे तभी इस पद का संरक्षण For Private & Personal Use Only अक्टूबर 2004 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org

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